Monday, December 27, 2010

कोई टूटे टुकड़ों से निर्माण कर जाता है

कोई टूटे टुकड़ों से निर्माण कर जाता है
तोड़ फोड़ कर कोई नुकसान कर जाता है।
किसी को दिल में रहने का हुनर आता है
कोई बातों से लहूलुहान कर जाता है।
काम कर जाता है जो तेज बहुत होता है
सीधा सादा तो बस परेशान कर जाता है।
ये जिंदगी अपनी है सफ़र भी अपना है
हमसफ़र कोई राह वीरान कर जाता है।
लड़ते रहते हैं जिस शख्स से उम्र -ता
कभी वह भी कोई एहसान कर जाता है।
नर्म टहनी पर खुरदरी गाँठ का होना
नया पत्ता आने का गुमान कर जाता है।
किसी ने कहा है तो ठीक ही कहा होगा
साहिल ही समंदर को वीरान कर जाता है।

बीते लम्हों से जो बात हुई

बीते लम्हों से जो बात हुई
लगा उनसे मुलाक़ात हुई।
कौन छूकर फिर गुजरा है
रूह की दिल से ये बात हुई।
पोर पोर जलाती दुपहरी में
चिनारों पे जैसे बरसात हुई।
मेरा दिल तेरी पनाह में है
आज भी उनसे यही बात हुई।
वक़्त का पता ही न चला
कब दिन बीता कब रात हुई।

आने वाला साल बेमिसाल हो जाये.

आने वाला साल बेमिसाल हो जाये
सालो में वह साल कमाल हो जाये।
आतंक भुखमरी भ्रस्टाचार मंहगाई
इन सबका बहुत बुरा हाल हो जाये।
आपसी नफरतें बैरभाव मिट जाये
हर दिल ख़ुशी से मालामाल हो जाये।
मानवता की जय हो बुराई की हार हो
नए साल में यह कमाल हो जाये।
आने वाला साल बेमिसाल हो जाये
सालों में साल नया साल हो जाये।

Friday, December 17, 2010

जाने किस डगर गया होगा

जाने किस डगर गया होगा
अपने साये से डर गया होगा।
अपने सपनो को जाते जाते
दर बदर कर गया होगा।
अपनों ने सताया इतना
जख्मे रूह लेकर गया होगा।
किसी ने कद्र न की उसकी
सूखा बादल बिखर गया होगा।
बच्चा होता तो बहल ही जाता
बूढा था कहीं मर गया होगा।

Tuesday, December 14, 2010

पास आके देखले मुझे करीब से

पास आकर देखले मुझे करीब से
क्या दुश्मनी है तेरी मुझ गरीब से।
पूछते हो हाल मेरा ये क्या हो गया
चैन छीन लिया तूने बदनसीब से।
दिल बहलता नहीं किसी बात से
मैं तो जी रहा था बड़ी तरतीब से ।
उम्र गुजर गई तब जाके ये जाना
ज्यादा मिलता नहीं कभी नसीब से।
दर्द की सौगात मैंने खुद चुनी थी
शिकायत नहीं है मुझे रकीब से।
गम दिल में रहेगा सदा बस यही
नहीं जान सका तू मुझे करीब से।

Saturday, December 11, 2010

जिसकी फितरत है दगा करने की

जिसकी फितरत है दगा करने की
सोच नहीं सकता वफ़ा करने की।
सुनकर भी नहीं सुनता किसी की
क्या जरूरत है उससे बात करने की।
हमें तो नागवार गुजरता है बहुत
नहीं आदत है गलत बात करने की।
लागा लिपटी पसंद नहीं बिल्कुल
हमे आदत है साफ़ साफ़ कहने की।
गली गली फिरता है मारा मारा
नहीं आती अदा उसे दिल में बसने की।

Friday, December 10, 2010

तुझे रुकने का वक़्त न था

तुझे रुकने का वक़्त न था
मिरा टोकने का वक़्त न था।
इतना भी यकीन है मुझको
पत्थर था तू सख्त न था।
साया दिया था जिसने हमे
सर पर बूढा दरख्त न था।
जमा होता तो मर गया होता
इतना ठंडा भी रक्त न था।
ज़ज्बात रहे न वो मगर
मैं कभी इतना मस्त न था।

दर्द से रोशनी नहीं होती.

दर्द से रोशनी नहीं होती
हर घड़ी बन्दगी नहीं होती।
कल हवेली थी अब खंडहर है
वक़्त से दोस्ती नहीं होती।
आसमा को तकते रहने से
हर शब् चांदनी नहीं होती।
घर की वीरानी में ऐ दोस्त
खिड़कियाँ खुली नहीं होती।
गुस्से में जो भी बात होती है
वजनी वो कभी नहीं होती।
जिंदगी किसी तरतीब से भी
पल पल रेशमी नहीं होती।
क्या अजब मिल जाये अभी
ख़ुशी सदा अपनी नहीं होती।

Tuesday, November 23, 2010

अखलाक जरूरी है सलीका भी जरूरी है

अखलाक जरूरी है सलीका भी जरूरी है
जमाने के हिसाब से जीना भी जरूरी है।
आवाज़ में मिठास नाज़ुक सी मुस्कान
अंदाज़ में इनका होना भी जरूरी है।
खूबसूरती को अपनी तराशने के लिए
किसी हुनर का पास होना भी जरूरी है।
हादसा घर पर रहकर भी हो सकता है
अच्छे के लिए दुआ होना भी जरूरी है।
टोकता खुद को न यदि मैं बिगड़ जाता
जिंदगी में नसीहत का होना भी जरूरी है।

मेरे हुनर ने मुझे नई पहचान दी है

मेरे हुनर ने मुझे नई पहचान दी है
नई आन नई बान नई शान दी है।
फना हो जाता मैं तो कभी का ही
दुश्मनों ने मेरे लिए जान दी है।
बताया मुझे हवाओं ने जब चली
अपनों ने सर टकराने को चट्टान दी है।
हम तो निकले थे मौत को खोजते
होसलों ने मौत को थकान दी है।
काबू खो बैठा था मैं खुद पर से ही
नर्म लम्स ने मुझे मुस्कान दी है।
वरक वरक फसाना बिखर गया था
मैंने जज्बातों को नई उफान दी है।

वक़्त का क्या है निकल जायेगा

सोचोगे तो रस्ता भी मिल जायेगा
वक़्त का क्या है निकल जायेगा।
आज जहाँ है जो,कल नहीं रहेगा
मुसाफिर आगे निकल जायेगा।
आदमी के ही मसले होते हैं बहुत
बच्चा एक खिलोने से बहल जायेगा।
तुने जो कहाथा मैं भी कह सकता हूँ
फैसला ऐ हाकिम तो बदल जायेगा।
एक शहर के अपने किस्से होते हैं
शहर बदलते किस्सा बदल जायेगा।
नाम से फर्क भी पड़ता क्या है आखिर
बदलना चाहो तो झट बदल जायेगा।

Thursday, November 18, 2010

वक़्त के साथ चलता चलता मैं लम्हा हो जाऊँगा

वक़्त के साथ चलता चलता मैं लम्हा हो जाऊँगा
बेटे को छोटू कहते कहते मैं बूढा हो जाऊँगा।
मेरे क़द से ऊंचा जब छोटू मेरा हो जायेगा
अंगुली पकड़ के चलता मैं बच्चा हो जाऊँगा।
आँखों पर हथेली रखकर पूछेगा मैं कौन हूँ
मचल जाऊँगा मैं उसका सपना हो जाऊँगा।
नाहक छेड़ा किस्सा तूने महफ़िल में रहने का
घर तक पहुंचते पंहुचते मैं रुसवा हो जाऊँगा।
अपने हाथों में लिखी तेरी मेरी तकदीर का
वरक पढ़ते पढ़ते मै किस्सा हो जाऊँगा।

मेरी तस्वीर लेजाके साथ करोगे क्या

मेरी तस्वीर लेजाके साथ करोगे क्या
तन्हाई में भी मुझसे बात करोगे क्या।
मेरे ख़त को तो सम्भाल न पाए तुम
ग़मों की और बरसात करोगे क्या।
हर चोट सही है हंस हंस कर मैंने
मेरे हर दिन को रात करोगे क्या।
छिप कर आ बसा हूँ तेरी बस्ती में
मुझे इतना बर्दाश्त करोगे क्या।
सीधा सादा सा मासूम बहुत हूँ मैं
रख कर ताल्लुकात करोगे क्या।

Thursday, November 11, 2010

तुम्हारी बातों पर सब निहाल हो गये

तुम्हारी बातों पर सब निहाल हो गये
दिल से फकीर थे मालामाल हो गये।
तुम्हे देख कर ये ख्याल है आया
तुमसे मिले हुए सालों साल हो गये।
रिश्ता पुराना है जुनून है नया नया
समय बदला दोनों फिर कमाल हो गये।
पहचान तुममे मुझमे बरकरार है अभी
यह जान कर सब जने बेहाल हो गये।
बुझी नहीं प्यास, बुझाने को प्यास को
समंदर सब के सब ही बेहाल हो गये।

हर खुशबु की अलग ही तासीर होती है

हर खुशबु की अलग ही तासीर होती है
बहते हैं अश्क आँख से जब पीर होती है।
फूल नकली ही चमकते हैं सालों साल
असली फूल की भी क्या तकदीर होती है।
मां की बेटी की बहिन की औ बीवी की
हर मुहब्बत की अलग तस्वीर होती है।
चमका देती है मेरे नसीब को भी वह
वह जो तेरे हाथ की लकीर होती है।
गरूर लहजे में मेरे भी आ ही जाता है
दिल में बसी तेरी जब तस्वीर होती है।
तुझ से ही पूछता हूँ बार बार मैं यह
क्यों जान लेवा तेरी तस्वीर होती है।
ख्वाहिशें बदलती हैं, है जिस्म टूटता
शबे- तन्हाई की यह तासीर होती है।
ज़ल्द सूखता है हरा रहता है कभी
हर ज़ख्म की अलग तकदीर होती है।
बाज़ार खुल जाता है जब दर्द का दिल में
चेहरे पर खिंची एक लकीर होती है।

कोई पूछे कहना हम तौबा नहीं करते

कोई पूछे कहना हम तौबा नहीं करते
दोस्तों के लिए हम क्या नहीं करते।
ठोकरे तो जमाने में सबको लगती हैं
किसी के गिर जाने पे हंसा नहीं करते।
तू तो मुसाफिर ही खुली धूप का था
फिर गिला क्यों है हम साया नहीं करते।
ख़ाली हाथ आये ख़ाली हाथ ही रहे
शुहरत पाकर कभी मचला नहीं करते।
आँधियों को हाथ थामने की जिद थी
कागज की नाव में पार जाया नहीं करते।
यह भी हमारी किस्मत की ही खराबी थी
वरना रात में घर से निकला नहीं करते।

Wednesday, October 27, 2010

हर बात पर चश्मे तर किया नहीं करते

हर बात पर चश्मे तर किया नहीं करते
अपनी ही आग में कभी जला नहीं करते ।
आदत पुरानी है मेरी सवाल करने की
जवाब पर बस अब हम उलझा नहीं करते।
तेरा अज़ाब पाकर मुतमइन हूँ बहुत
इससे ज्यादा और तमन्ना नहीं करते।
टूट गये कच्चे घड़े सब मेरे सहन के
प्यासे लब फिर भी शिकवा नहीं करते।
किसके लिए दरवाजे पे उतरा चाँद था
धुंधली आँखों से ये देखा नहीं करते।
आंसू मेरे थे मुझ पर ही रोके चले गये
अपनों से परेशां कभी हुआ नहीं करते।
वह मेरा कुछ लगता भी है या नहीं
यह बात हम खुद से पूछा नहीं करते।
सफ़र में प्यार के आती हैं फिजां सब
नया आसमां देख के डरा नहीं करते।

एक अरसे तक तेरे लिए पत्थर तराशे थे

एक अरसे तक तेरे लिए पत्थर तराशे थे
दीवार छत तेरे फर्श ऐ घर तराशे थे।
तारीख साज़ बनकर के मैंने तो तेरे
साल महीने हफ्ते दिन हर तराशे थे।
बेहद मुश्किल काम था मैंने पर किया
उदासियों के तेरी मैंने पर तराशे थे।
फलक खाली देख के ख्याल आया
कहाँ गये दर्द जो मिलकर तराशे थे।
समुंदर भी सहमा सा है वह बहुत
किनारे जिसके तूने घर तराशे थे।
घर बदलते वक़्त तूने यह नहीं जाना
मैंने इस घर के भी पत्थर तराशे थे।
खुदा महफूज़ रखना ग़ज़ल को मेरी
संग तेरे जिसके मैंने अक्षर तराशे थे।

Wednesday, October 13, 2010

तहरीरो के नश्तर चलाना लाजिमी है क्या

तहरीरो के नश्तर चलाना लाजिमी है क्या
वायदे कर के निभाना लाजिमी है क्या।
दरीचा खुलने पर भी वह दिखता नहीं है
हर बार उधर ही देखना लाजिमी है क्या।
बदहवाश सा बना है हर वक़्त आदमी
बेवज़ह वफादारी निभाना लाजिमी है क्या।
सब तरह के लोग हैं बज्म में तेरी
अदब शऊर बरसेगा लाजिमी है क्या।
तेरे सवालों पर मैं चुप ही खड़ा रहा
मुजरिम मुझे ठहराना लाजिमी है क्या।
आंधियां तो आती हैं आती ही रहेंगी
हर बार पेड़ उखड़ना लाजिमी है क्या।
सियासी कठपुतली खेल खेलेगी ही
संग नाचते रहना लाजिमी है क्या।

महफ़िल में हर कोई निखरा लगता है

महफ़िल में हर कोई निखरा लगता है
बाद महफ़िल के वो बिखरा लगता है।
बेख्याली में चलता ही चला जाता है
होश आते ही वो थका सा लगता है।
इश्क करोगे तो दोस्त बिछड़ जायेंगे
किस्सा भले ही ये पुराना लगता है ।
इश्क के दरिया में कूद जानेके बाद
सिलसिला आज भी नया लगता है।
चेहरा बदलते ही आस्था बदल जाती है
जाने क्यों इंसान डरा डरा सा लगता है।
अँधेरे में बाहर जब शोर बहुत मचता है
घर में पहले वो उजाला करता लगता है।
सोने का सिक्का उसे गूंगा कर देता है
जो हर बात पर बहुत बोलता लगता है।

जितना जानता हूँ उतना बता सकता हूँ

जितना जानता हूँ उतना बता सकता हूँ
इससे ज्यादा और क्या बता सकता हूँ।
हाँ इन दिनों मैंने और भी कुछ जाना है
कुछ और भी मैं नया बता सकता हूँ।
तंग दिनों में कैसे माँ ने रोटी सेकी थी
बढती महंगाई में इतना बता सकता हूँ।
रात भर जगती होगी माँ बीमारी में मेरी
पत्नी माँ जब से बनी इतना बता सकता हूँ।
खुद गीले में रहके सुलाती मुझे सूखे में
कैसी थी वह ममता इतना बता सकता हूँ।
एक बार गिर गया तो संभल न पाऊंगा
भीड़ में पिस जाऊँगा बता सकता हूँ।
इबादत का कोई हिसाब नहीं होता कभी
सजदा करता हूँ बस इतना बता सकता हूँ।
नई शुरुआत करें नफरतें मिटा दे दिलों से
प्यार में ही सब कुछ है इतना बता सकता हूँ.

Friday, October 8, 2010

लोरियां सुनने का ख्याल आता नहीं.

लोरियां सुनने का ख्याल आता नहीं
किसी बात पर भी मलाल आता नहीं।
तन्हा रहने का रबत पड़ गया जबसे
रूमानियत का अब ख्याल आता नहीं।
शाम आई थी जमाने बाद हसीं बनकर
सज के रहने का अब कमाल आता नहीं।
बिछड़ गये काफिले से सब एक एक कर
महफ़िल सजाने का ख्याल आता नहीं।
खिंच गया जिस्म से जोशे सुकून सारा
ज़ख्म अब भी हरा है मलाल आता नहीं।
तकता रहता हूँ जमाने को खाली बैठ
बख्शीश मांगने का ख्याल आता नहीं।
हिज्र की रुत इतनी शोख न देखी कभी
दरवाज़ा बंद करने का ख्याल आता नहीं।

Monday, September 27, 2010

नए शहर में मसला रिहाइश का होता है

नए शहर में मसअला रिहाइश का होता है
समंदर किनारे सिलसिला बारिश का होता है।
गिर जाती है बिजली जब किसी इमारत पर
चरचा चारो और फिर साज़िश का होता है।
हुनर आ जाता है जब हाथ में काम करने का
ज़िक्र ओठों पर तब नुमाइश का होता है।
क्या जरूरी था वह मेरे पास ही आ जाता
रिश्ता तो दिलों में ख्वाहिश का होता है।
मेरी खानाबदोशी भी किसी कम न आई
लिहाज़ अमीरों की फरमाइश का होता है।

फैसला रुका हुआ मिल जाता तो अच्छा था

फैसला रुका हुआ मिल जाता तो अच्छा था
सिलसिला कोई बन जाता तो अच्छा था।
ख़ुशी से मिलता या मिलता गम से ही
करार दिल को मिल जाता तो अच्छा था।
घुट घुट के जीना भी कोई जीना है भला
गुबार दिल का निकल जाता तो अच्छा था।
है तुझ में भी है मुझ में भी अहम् भरा हुआ
घमंड दिल से निकल जाता तो अच्छा था।
नाम के साथ परेशानियाँ भी बढ़ गई मेरी
मैं अजनबी सा बन जाता तो अच्छा था।

Saturday, September 18, 2010

लकीर तेरी लकीर से मेरी बड़ी हो गयी

लकीर तेरी लकीर से मेरी बड़ी हो गयी
लकीरे ही अब अना आदमी की हो गयी।
कुछ और किसी को भी अब सूझता नहीं
कमी आदमी की बड़ी एक यही हो गयी।
माफिक नहीं हैं हालात जल्द बदल जायेंगे
तकदीर कहाँ खराब फिर अपनी हो गयी।
जीतना किसी न किसी को तो था जरूर
गम क्यों शिकस्त आज अपनी हो गयी।
होसला दिल में है अगर जिंदा उमंग है
जमाना देखेगा कल ख़ुशी अपनी हो गयी।

कब तक यूं ही बर्बाद होते रहेंगे

कब तक हम यूँ ही बर्बाद होते रहेंगे
दिल में रह रह के मलाल होते रहेंगे।
न सूखेगा समंदर का पानीतो कभी
दरियाही बस सारे ख़ाक होते रहेंगे।
शोर तनहाइयों पर हँसता ही रहेगा
बिछुड़े रिश्तों के मलाल होते रहेंगे।
जख्मो से महक तो उडती ही रहेगी
हादसे भी सुबह और शाम होते रहेंगे।
सहमा सा पेड़ खड़ा क्या देख रहा है
सदा ऐसे भी ही सवाल होते रहेंगे।

बातों में हमको न उलझाओ यारो

बातों में ही हमको न उलझाओ यारो
अपने दिल की भी कुछ सुनाओ यारो।
तलब पूरी नहीं होती है दिल की कभी
कितने ही जाम ओठों से लगाओ यारो।
तमाशा बन गया तो फिर मुश्किल होगी
सुलगी चिंगारीको राख में न दबाओ यारो।
कहा था उसने कि सूराख हो जायेगा
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
मैं कहता हूँ वजूद ही छलनी हो गया
पत्थर शब्दों के और न उछालो यारो।
बहुत बदनाम हो चुका हूँ मैं जहान में
अब और पगड़ी न हमारी उछालो यारो।

Wednesday, September 15, 2010

सूखी शाख पर हरे पत्ते नहीं मिलते

सूखी शाख पर हरे पत्ते नहीं मिलते
टुटा दिल बहलने के रस्ते नहीं मिलते।
वह जिनसे रूह को ठंडक मिलती थी
दिल में पलते वह रिश्ते नहीं मिलते।
नकली फूलों का चलन इतना बढ़ गया
असली फूलों के गुलदस्ते नहीं मिलते।
खुशियाँ सिमटके रह गई चंद पलों में
इन्सान हर वक़्त हँसते नहीं मिलते।
गुजरना न इस डगर से काफिले लेकर
इस सरहद से आगे रस्ते नहीं मिलते।

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी की सम्पदा सिमटती जा रही है .

हिंदी की सम्पदा सिमटती जा रही है
हिंदी पल पल सिसकती जा रही है।
प्रयोग करने को शब्द नहीं मिलते
हर दिल से हिंदी हटती जा रही है।
अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ती नई पीढी
हिंदी से बहुत ही दूर हुई जा रही है।
हिंदी में सहजता से बोल नहीं पाते
परम्परा हिंदी की टूटती जा रही है।
व्यवहार में आने वाले शब्द भूल गएहैं
अंग्रेजी शब्दों से भरपाई की जा रही है।
कितनी ही कोशिशे कर के देख ली
दशा हिंदी की बिगडती ही जा रही है।
हर वर्ष हिंदी दिवस मनाकर ही बस
बरसी की रस्म अदायगी की जा रही है।

Monday, September 13, 2010

हिंदी दिवस पर विशेष एक कविता

ज्यों माथे का अभिमान है बिंदी
हर अधर की भी शान है हिंदी।
मेरी भी है तेरी भी है सबकी है
प्यार भरी मुस्कान है हिंदी।
जन जन के हृदय की झंकार है
साहित्य का गौरव गान है हिंदी।
ज्ञान प्रकाश चहुँ और फैलाती
सब भाषाओँ में महान है हिंदी।
मानवता का पाठ पढ़ाती है यह।
सकल गुणों की खान है हिंदी।
जन मानस में खुशहाली भरती
माँ भारत की प्रिय संतान है हिंदी।

Friday, September 10, 2010

अजीब शख्श था चाहत की बयार छोड़ गया .

अजीब शख्श था चाहत की बयार छोड़ गया
वह अपने इश्क में मुझे बीमार छोड़ गया।
मेरी नज़रों में नज़रे डाल कर के वह
फिर मिलके रहने का करार छोड़ गया।
उसे पता था तन्हा न रह सकूँगा मैं
यह हवा यह फिज़ा यह बहार छोड़ गया।
जिंदगी चाहत से ही तो चला करती है
दिल में यह सबक भी तैयार छोड़ गया।
आसमां हूँ तेरी प्यास बुझा दूंगा जरूर
वह वादों की फसल तैयार छोड़ गया।
मुझे खुद से ज्यादा यकीं उस पर हुआ
हर राह में एक मंजिल तैयार छोड़ गया।
मैंने देखा था जाने के बाद ख़त उसका
अपनी शायरी के अशआर छोड़ गया।
रस्मो रिवाज़ से घबरा गया था वह
मेरे हिस्से में लम्बी इंतज़ार छोड़ गया।
दिल की वादियाँ अँधेरे में डूब गयी थी
वह दूर जलते चिराग बेशुमार छोड़ गया।

खूबसूरती पर नज़र फिसल ही जाती है.

खूबसूरती पर नज़र फिसल ही जाती है
ओंठों से आह भी निकल ही जाती है।
कितना ही परहेज से रहा करे कोई
लजीज खाने पे नियत मचल ही जाती है।
सिंगार कितना भी अच्छा कर लिया हो
आइना देख कमी निकल ही जाती है।
वक़्त कितनी भी खुशियाँ बांटा करे
तकदीर अपनी चाल चल ही जाती है।
चुप रहने दे यार बहुत बोल लिए अब
ज्यादा बोलने से जुबां फिसल ही जाती है।

Wednesday, September 8, 2010

सिर से पाँव तक उसके चादर नहीं आई

सिर से पाँव तक उसके चादर नहीं आई
मुफिलिसी घर से कभी बाहर नहीं आई।
अच्छे दिनों की आस में उम्र कट गई सारी
महकती कोई भी रात बेहतर नहीं आई।
घर तो चमन के बहुतही करीब था उसका
हवा के साथ खुशबु कभी अन्दर नहीं आई।
रस्ते भी तो खोल दिए थे मेहनत ने सारे
तकदीर उसके करीब आकर नहीं आई।
जाने क्यूं अकेला वह सदा ही रह गया
परछाई भी कभी उसके बराबर नहीं आई।

Sunday, September 5, 2010

किश्ती कागज की आती थी बनानी भूल गये

किश्ती कागज की आती थी बनानी भूल गये
बचपन की बातें सारी वह पुरानी भूल गये।
शराब दोस्त बन गयी इस हद तलक अपनी
बेवफा जिंदगी की सारी कहानी भूल गये ।
जग जग के कटा करती थी रात पलकों में
कभी सेज पर महकती थी जवानी भूल गये।
वक़्त से पहले आता था उमीदों का मानसून
जम कर कितना बरसता था पानी भूल गये।
किश्ती लडखडा गई थी हमारी जब से भंवर में
हम राहें वह सब जानी पहचानी भूल गये।
अब हम कहाँ तुम कहाँ वह रात कहाँ गई
मुहब्बत की वह बल खाती रवानी भूल गये।
वो मिलना मिलाना वह उठना बैठनासंग
भूले तो संग गलियों की कहानी भूल गये।

हर दिल के तूफां को सैलाब कर दूंगा

हर दिल के तूफां को सैलाब कर दूंगा
मैं जब कईयों को बे नकाब कर दूंगा।
फिसाद करते हैं मिलके चुपके चुपके
मैं उन सबका जीना खराब कर दूंगा।
बदी पर अपनी उतर आऊँगा जब
बोतल में जो बंद है शराब कर दूंगा।
तुमने तहे दिल से पढ़ लिया मुझे तो
खुद को मैं खुली किताब कर दूंगा।
शहर में तेरे धरा क्या है कुछ तो बता
मेरे संग चल तुझे लाजवाब कर दूंगा।
हर सांस में महका करेगा खुशबु बन
मैं तुझे एक खिलता गुलाब कर दूंगा।

आदमी कब क्या सोच ले पता नहीं.

आदमी कब क्या सोच ले पता नहीं
करता करता क्या कर बैठे पता नहीं।
वक़्त आदमी के मिजाज सा होता है
बनते बनते कब बिगड़ बैठे पता नहीं।
शहर तो कोई भी नहीं बदला उसने
हैं घर क्यों इतने बदले पता नहीं।
रहो उस के जो दिल को लगे अच्छा
वह क्यों बदलता है रिश्ते पता नहीं।
शहर रोशन करने का वादा था मगर
कहाँ उड़ गये गर्द बन के पता नहीं।
राजे-मुहब्बत दफ़न था दिल में जब
क्यों रोये गले लग के पता नहीं।
हमें तो खा गया दिल का जूनून
हुए हाथ क्यों उनके कलम पता नहीं।

Wednesday, September 1, 2010

देखते देखते जमाने बदल गए

देखते देखते जमाने बदल गए
मेरी खुद्दारी के पैमाने बदल गए।
ख़ुशी गम होते हैं अब भी मगर
उनके होने के बहाने बदल गए।
बढ़ गई दीवानगी इस हद तलक
खाका ए पैरहन पुराने बदल गए।
अह्सासे जियां भी वह नहीं रहा
हकीकते दस्तूरे मैखाने बदल गए।
खड़े सिरहाने पे आके मेरे क्यों हो
गले लगने के वे जमाने बदल गए।
नींद जब से आने लगी है हमें कम
सोने के हमारे सिरहाने बदल गए।
पलकों में रख लिया है जब से उन्हें
रहने के अपने ठिकाने बदल गए।
चेहरा नया नहीं है कोई भी मगर
इन्सान क्यों न जाने बदल गए ।

Monday, August 30, 2010

हद से ज्यादा बे शरम होती है शर्म

नहीं आती जब तलक नहीं आती है
आने को किसी बात पर भी आती है।
हद से ज्यादा बे शरम होती है शर्म
आती है तो सबके सामने ही आती है।
कितनी ही कोशिशें कर के देख ली
कब्ज़े में जिंदगी कभी नहीं आती है।
बुढ़ापे में दम होता नहीं निकलता है
हर सांस उखड़ी उखड़ी सी ही आती है।
महक जिस गम की ताउम्र रहा करती है
आँख में कतराए शबनम बनी आती है।
उम्र रूह की नहीं जिस्म की हुआ करती है
ख़ामोशी भी तो बात करते ही आती है।
दिन तो जैसे तैसे कर गुज़र ही जाता है
कोई शाम बड़ी ही हसीन बनी आती है।

Sunday, August 29, 2010

हर बात की तलब अब छोड़ चुके हैं

हर बात की तलब हम अब छोड़ चुके हैं
अकड़ कर रहने का फ़न अब छोड़ चुके हैं।
शरीक अपने गम में हम अब किसे करें
तन्हा रहने का चलन हम छोड़ चुके हैं।
जो दरिया था वही समंदर बन गया
अश्क बहने का हुनर अब छोड़ चुके हैं।
मुहब्बत में रतजगा ही जरूरी काम था
गम के दहाने पर उसे अब छोड़ चुके हैं।
कुछ वक़्त लगता है भूलने में किसी को
रफ्ता रफ्ता शहर हम अब छोड़ चुके हैं।
मुहब्बत पुकारती है तन्हाई में अब भी
बस रुक कर सुनने का फ़न छोड़ चुके हैं।
परवाह दिल को उनकी आज भी उतनी है
वो नाम मेरा रेत पर लिख छोड़ चुके हैं।

Saturday, August 28, 2010

अलग आइनों में चेहरा अलग नज़र नहीं आता

अलग आइनों में चेहरा अलग नज़र नहीं आता
सूनी आँखों में अह्सासे गम नज़र नहीं आता।
अतीत की तहें पलटने से वर्तमान बदलेगा कैसे
बीमारी में कभी चेहरे पर नूर नज़र नहीं आता ।
गुमनामी के अँधेरे में खो कर रह गया था कभी
अपने वजूद में सिमटा वह अब नज़र नहीं आता।
खुद्दारी उसका जेवर बन कर के रहा करती थी
बुढ़ापे में भी मोहताज वह नज़र नहीं आता ।
अपने दर्दे- गम से लिखता है ग़ज़ल के मिसरे
चेहरे पर फिर भी कोई दर्द नज़र नहीं आता।

हर चेहरे की हंसी बेमानी लगती है .

हर चेहरे की हंसी बेमानी लगती है
माथे की शिकन परेशानी लगती है।
हर वक़्त जिंदगी में उलझन हैं इतनी
लाचारी एक नई कहानी लगती है।
अपने वजूद में सिमटे हुए हैं सब
रिश्तेदारी भी अब वीरानी लगती है।
रोटी जुटाने की फ़िक्र ओ कोशिश में
इंसान की खो गई जवानी लगती है।
अमीरी चमकती है गरीबी सिसकती है
दुनिया यूँ ही चलती रूमानी लगती है।

वह तमाम घर में ख़ुशी बिखेर देती थी

वह तमाम घर में ख़ुशी बिखेर देती थी
नई तरतीब की हंसी बिखेर देती थी।
रेशमी भीगे बालों को लहरा कर के
नथुनों में महक सोंधी बिखेर देती थी।
सुबह सबेरे मेरी आँख नहीं खुलती थी
वह हंसके मुझ पे पानी बिखेर देती थी।
उसकी नर्म पलकों की ह्या सतरंगी
मेरे चेहरे पे चमक सी बिखेर देती थी।
कंधे से सरका कर के पल्लू होले से
मेरे वजूद में मस्ती बिखेर देती थी।
दिल में रूमानियत का ख्याल आने पर
नज़र में अपनी मर्ज़ी बिखेर देती थी।
इतरा कर चलती हुई छनछन करती
सहन में सारे मोती बिखेर देती थी।

Saturday, August 7, 2010

नियम तो बन गया लागू कैसे होगा .

नियम तो बन गया अब लागू कैसे होगा
बिगड़ा हुआ है जो वह साधू कैसे होगा ।
सोच कर यह भी तो परेशान हैं सब
जो सीधा है बहुत वह चालू कैसे होगा ।
उम्मीदों की जो बारात सजाये बैठे हैं
उनका बढ़ता गुस्सा काबू कैसे होगा ।
सन्नाटा चीख चीख कर परेशान है
लहरों का शोर आखिर काबू कैसे होगा ।
किताबों में ही पढ़ा है बच्चों ने अब तक
पता नहीं नाचता वह भालू कैसे होगा ।
संस्कारों में पला है जो शुरू से ही
बड़ा होकर वह चोर डाकू कैसे होगा ।
नसीहतें तो हर कोई दे देता है मगर
जीवन में सब कुछ लागू कैसे होगा ।

काश हम सब हिन्दुस्तानी हो जाएँ .

जात पात की बातें सारी बेमानी हो जाएँ
दिल से हम सब काश !बलिदानी हो जाएँ ।
नाम के आगे धर्म लिखें न जात कोई अपनी
हिन्दुस्तानी लिखकर सब हिन्दुस्तानी हो जाएँ ।
जो भ्रष्ट हैं बेईमान हैं उनको सजा दिला दें
महल और झोंपड़ी के नाते बेमानी हो जाएँ ।
नारी को सम्मान मिला हो आँख में रहे न आंसू
दुर्बल न रहकर सब झाँसी की रानी हो जाएँ ।
दोबारा लिखें इतिहास परीक्षा फिर से देकर
स्वर्णिम हिंदुस्तान बनाकर सब ज्ञानी हो जाएँ ।

Tuesday, August 3, 2010

वह एक दम से जब चलने लगता है.

वह एक दम से जब चलने लगता है
दिल तेजी से तब धडकने लगता है ।
तारीफ़ जब होती है मेरी बहुत
अपनों का दिल जलने लगता है ।
तूफ़ान बार बार आता है जब
वक़्त का जिगर हिलने लगता है ।
वीरान घर में शोर मचता है तो
दिल रह रह कर दहलने लगता है ।
बारिश होती नहीं जब तक नहीं होती
होते ही खतरे में घर लगने लगता है।

वक़्त लगता है फूल के खिल जाने में .

वक़्त लगता है फूल के खिल जाने में
वक़्त नहीं लगता टूटकर गिर जाने में ।
चाहकर भी उनसे मिल न सके कभी
फासला कुछ भी न था पास जाने में ।
उनसे मिलने की जरा सी ही कोशिश
तूफ़ान मचा गई सारे ज़माने में ।
दीवार रेत की थी दरकती ही चली गई
उम्र गुज़र गई थी उसको बनाने में ।
तूफ़ान कभी का आके चला गया था
हम लगे रहे रहे सबको मनाने में ।
भगदड़ सदा ही मचती रही यूँ ही
जिंदगी बीत गई रूठने मनाने में।

अपनी नियत पर डर लगने लगता है .

सहरा समंदर जब लगने लगता है
अपनी नियत से डर लगने लगता है।
नुक्सान का गम नहीं होता मुझको
मिली खुशियों से डर लगने लगता है।
दबी रह जाती है चिंगारी राख में तो
जरा सी हवा से डर लगने लगता है।
जो मेरे नज़दीक हैं मुझे जानते कम हैं
उनसे मिल के डर लगने लगता है।
तेरे संग कुछ दूर तलक चल तो लेता
तेरे रंग में ढलने से डर लगने लगता है।
इस हद तक बढ़ जाती है दीवानगी मेरी
कभी मुझे खुद से डर लगने लगता है।

Monday, August 2, 2010

.हम अपना गम कभी बेआबरू नहीं करते .

हम अपना गम कभी बेआबरू नहीं करते
उड़ते हुए परिंदे की जुस्तजू नहीं करते।
हमारा अपने रहने का तरीका अलग है
किसी से बात हम फ़ालतू नहीं करते ।
फूल की खुशबु हवा उड़ा कर ले जायेगी
इसलिए हम उसकी आरज़ू नहीं करते।
मेहमान कुछ दिन रहते हैं चले जाते हैं
उनसे रहने की हम गुफ्तगू नहीं करते।
नई बातों से ही फुरसत नहीं मिलती हमें
पुराना पैरहन हम कभी रफू नहीं करते।

चाँद सितारे फलक पर सजे जा रहे हैं.

चाँद सितारे फलक पर सजे जा रहे हैं
फूल संग कांटे चमन में खिले जा रहे हैं।
एक ही पेट से पैदा हुए हैं जो भाई भाई
वही अक्सर आपस में लड़े जा रहे हैं।
एक ही तहरीर है सबके पास मगर
फिर भी सब के सब भिड़े जा रहे हैं।
झगड़े में कट गई उम्र काम की थी जो
जिदों पर ही अपनी सब अड़े जा रहे हैं।
लाजिम है मौत ने एक दिन आना है
मौत आने से पहले सब मरे जा रहे हैं।
बरस दर बरस से यही तो हो रहा है
दरिया ही अब किनारे बने जा रहे हैं।

Friday, July 30, 2010

हाले - मिड डे -मील .

सोमवार -रोटी , सब्जी ,दाल ,सोयाबीन की बड़ी ।
मंगलवार - चावल ,साम्भर अथवा चावल सब्जी ।
बुधवार - चावल और कढी ।
ब्रहस्पतिवार- सब्जी युक्त दाल रोटी ।
शुक्रवार - ताहरी ,सोयाबीन की बड़ी ।
शनिवार - चावल के साथ सब्जी ।
मिड -डे -मील का मेनयु बन कर दीवार पर ठंग गया।
बच्चों को पोष्टिक आहार दिलाने का वायदा कर गया ।
पर खाने को मजबूर हैं रोज़ कभी मीठा कभी नमकीन दलिया।
दो साल पहले मुख्य मंत्री के आने पर मिला था दाल चावल
दाल रोटी खाए भी अब एक अरसा बीत गया ।
अब तो खाना पूर्ति ही हो रही है बस खिलवाड़ ही चल रहा ।
मेन यु दीवार पर लिखा मिट कर रह गया ।
कढी चावल का मिलना सपना बन कर रह गया ।

Wednesday, July 28, 2010

आईने ने तो बहुत खुबसूरत लगने की गवाही दी थी .

आईने ने तो बहुत खुबसूरत लगने की गवाही दी थी
कोई मुझे देखा करे मैंने ही किसी को यह हक न दिया।
वक्त ने भी मेरी तन्हाइयों को पहचान लिया था
मेरे गरूर ने मुझे किसी आँख में रहने एक पल न दिया।
रह रह कर कईं सिलसिले याद आ रहे हैं आज
काश ! भूले से ही किसी महफ़िल में रह लिए होते ।
आज वक़्त ही वक़्त है काटे से भी नहीं कटता
कभी मोहलत मिली होती अपनों से गले मिल लिए होते।

अमुआ की डाली पर अब झूला नहीं पड़ता .

अमुआ की डाली पर अब झूला नहीं पड़ता
सावन में कजरी गाने का मन नहीं करता।
हफ्ते दस दिन की झड़ी लगा करती थी
सावन भी झूम कर अब नहीं बरसता ।
नन्ही बुन्दियों में सावन झूला करती थी
गोरी का झूलने का अब मन नहीं करता।
मेहंदी चूड़ियों की कभी बहार हुआ करती थी
उन यादों में कोई अब मगन नहीं मिलता ।
तीज का सिंधारा सबसे बड़ा हुआ करता था
शहर में अब इसका कहीं नाम नहीं सुनता ।
परदेस में जा कर के सब बस गये हैं अपने
अपना भी दिल यहाँ अब नहीं लगता ।

Tuesday, July 27, 2010

अँधेरा बता रहा है अब शब् नहीं रही .

अँधेरा बता रहा है अब शब् नहीं रही
चिराग मांगने की नौबत अब नहीं रही।
चाहतों का दम भी अपनी चूक गया है
बस मलाल यह है अब तलब नहीं रही।
उसने पुराने घाव पर नश्तर चला दिया
आह भी अब हर्फे-जेरे-लब नहीं रही ।
खुशबु का हिसाब कर लिया था कल ही
लबों पर मुस्कराहट वह अब नहीं रही।
असर नहीं होगा हम पर किसी का अब
दुआएं हमारी कभी कम-नसब नहीं रही।

Wednesday, July 21, 2010

खुशबुओं के दरीचे खुल गये .

या तो खुशबुओं के कही दरीचे खुल गये
या नयी किस्म के कहीं फूल खिल गए ।
हवा में घुली है महक उनके शबाब की
या अंगडाई लेकर वो खुद मचल गये।
खिंचते चले गये हम अल्लाह के करम से
जेहन में खुश्बुओं के कतरे ठहर गये ।
उनके करीब जाके उन्हें पलकों से छुआ
आँखों में अनजान से सपने मचल गये ।
दिल बंदिशों में फिर कैसे रहता बंध कर
तूफ़ान में हम तिनका तिनका बिखर गये।
इम्तिहान जैसे ले रही थी हमारा कुदरत
जिस्म में सैलाब के दरिया मचल गये ।


Saturday, July 17, 2010

नर्म हथेली पे हिना से नाम लिखके मेरा

खुद अपने से ही शर्माए जा रहे हैं वो
मुझसे भी नज़रें चुराए जा रहें हैं वो।
नर्म हथेली पे हिना से नाम लिखके मेरा
महफ़िल में बहुत इतराए जा रहे हैं वो।
बार बार दिल पे हाथ रख के अपने
मुझे जैसे सीने से लगाये जा रहे हैं वो।
ओठों पे मेरे प्यार की सुर्खी लिए हुए
आहों भरे नगमें गुनगुनाये जा रहे हैं वो।
उन्हें इतना खुबसूरत कभी नहीं देखा
यौवन के गुलमोहर खिलाये जा रहे हैं वो।

Tuesday, July 13, 2010

हर किसी को आता है आईने में चेहरा देखना.

हर किसी को आता है आईने में चेहरा देखना
हर कोई चाहता है अच्छा ही अच्छा देखना।

किसी के साथ रहना अच्छा लगता है।
कोई नहीं चाहता खुद को अकेला देखना।
बदले बिना जिंदगी एकदम ठहर जाती है।
कौन नहीं चाहता खुद को बदलता देखना।
बदलने की चाहत हर दिल में होती है पर
कोई नहीं चाहता दूसरे को बदलता देखना।
अपने आखिरी वक़्त में मजबूर न हो जाऊं
मैं चाहता हूँ तब भी खुद को चलता देखना।

इंसान की जान की कीमत

सब कहते हैं कि मंहगाई बढ़ रही है
मैं कहता हूँ वह वहीँ की वहीँ ही है।
इंसां की जां की कीमत सुपारी थी
इंसां की जां की कीमत सुपारी ही है।
दोस्ती निभाना बहुत ही जरूरी है
रिश्तेदारी तो बस दुनियादारी ही है।
एक का बने रहना मुमकिन नहीं
वफादारी हर पल बदल रही है ।
ईमान बचाना बहुत मुश्किल है
बोली सरे आम लग रही है ।

Sunday, July 11, 2010

बचपन गुजर जाता है.

बचपन कितना सुंदर हो गुजर जाता है
मन की दहलीज पर सन्नाटा पसर जाता है।
सियाह काले बादल घिर कर जब आते हैं
उजले दिन में भी अँधेरा बिखर जाता है।
सूखे जर्द पत्तों से खुशबु नहीं मिलती
हवा के साथ उनपर गम उभर जाता है।
उदासियों के बीच उभरती है हंसी जब
चेहरे पर एक नया दर्द निखर जाता है।
रात में जब बिजली चली जाती है
बच्चा माँ की गोद में भी डर जाता है।

Saturday, July 10, 2010

मैं जिंदगी में रूका नहीं हूँ

मैं किसी को दुःख देता नहीं हूँ
कोई गम सीने में रखता नहीं हूँ।
हर कोई चाहता है पढना मुझे
मैं किताब का पन्ना नहीं हूँ ।
मिटटी से बना हुआ हूँ मैं भी
बस दूध से धुला नहीं हूँ ।
सब रश्क करते हैं मुझसे
कभी जिंदगी में रूका नहीं हूँ।
एक अदद घर है मेरा भी
मैं कहीं भी भटकता नहीं हूँ ।

दीवानगी का इज़हार करना नहीं आया.

अपनी दीवानगी का इज़हार करना नहीं आया
जी भर कर किसी से प्यार करना नहीं आया
तबियत में तकल्लुफ रहा इतना ज्यादा
उम्र कट गई इसरार करना नहीं आया ।
दुआ अपनी भी कबूल हो जाती करते तो
खुद को किसी के हमवार करना नहीं आया।
पाँव रखते ही महकता था आंगन दिल का
क़दमों को
कम रफ्तार करना नहीं आया ।
पल पल पर हमने लुटाई थी खुशबुएँ
अपने को बस बेकरार करना नहीं आया।
बच कर हम भी निकल सकते थे लेकिन
हमें खुलकर इन्कार करना नहीं आया।
आसमान जमीन पर उतर भी सकता था
पलट कर के कभी वार करना नहीं आया

Friday, July 9, 2010

वह पसीना सुखाता है.

किसी को छाहं में पसीना आता है
वह धूप में खड़ा पसीना सुखाता है।
अपने जिस्म से बाहर निकल के
वह तमाम शहर के काम आता है।
किसी के अदब से पीछे नहीं हटता
चलते चलते रस्ता छोड़ जाता है।
इंतज़ार उसका किया करते हैं सब
वह प्यास के लिए कतरा बन जाता है।
करूं क्या उसके भटकने का जिक्र
वह हर कूचे से रिश्ता निभा जाता है।

Thursday, July 8, 2010

बरसना न भूल जाऊं थोडा थोडा बरस जाता हूँ.

तू मुझे न भूल जाए इसलिए नज़र आता हूँ
चलते चलते तुझ पर अहसान कर जाता हूँ।
बादल ने सहरा से मुस्कराकर कुछ यूं कहा
बरसना न भूल जाऊं थोडा थोडा बरस जाता हूँ।
इतना नहीं है दम मुझमें दर दर भटका करूं
नशे में रहकर भी मैं अपने ही घर जाता हूँ ।
देखने को अब बाकी बचा भी क्या शहर में
भागता हूँ फिसलता हूँ और गिर जाता हूँ ।
कहने को सीने में धडकता है नन्हा सा दिल
मनों बोझ जिंदगी का ढोए उस पर जाता हूँ।
जान लेवा हो रही है आबो- हवा दुनिया की
रिश्तों के अंदाज़ पर सहम कर रह जाता हूँ।
छोडो रहने दो जाने दो खत्म करो किस्से को
अपने गीत से समाज में नयापन भर जाता हूँ।

Wednesday, July 7, 2010

मैं नादान नहीं हूँ .

चुप रहता हूँ मगर नादान नहीं हूँ
किसी बात से मैं अनजान नहीं हूँ।
शहर में आ जाता हूँ कभी कभी
हर वक़्त का मैं मेहमान नहीं हूँ ।
इलज़ाम मुझ पर कोई लगाएगा क्या
मैं किसी का करता नुकसान नहीं हूँ।
भरोसा है बहुत खुदा पर मुझको
उसकी रहमतों से मैं वीरान नहीं हूँ ।
अपनी कलम से लिखता हूँ ग़ज़ल अपनी
करता किसी पर कोई अहसान नहीं हूँ।

कुछ नहीं रहा.

बदलाव में उस वक़्त का कुछ नहीं रहा
तुम तुम नहीं रहे मैं अब वह नहीं रहा ।
जिस दम से हाथ बढाया था मैंने तेरी तरफ
बिछड़ने के बाद मुझमे दम वह नहीं रहा ।
आँखों में लरजता नम कतरा कह रहा
अश्कों में भी जज्बा अब वह नहीं रहा ।
शहर में रहने की तरजीह दे रहे हैं लोग
लगता है गाँव भी गाँव अब वह नहीं रहा।
कभी फुरसत मिली तो सोचेंगे बैठकर यह
क्यों आज आज नहीं रहा कल वह नहीं रहा।

Tuesday, July 6, 2010

खाली घर हो गया.

तुम्हारे जाने से खाली घर हो गया
नई तरह का पैदा सूनापन हो गया ।
दिल बचपन से पक्का दोस्त था मेरा
लम्हा लम्हा वह भी दुश्मन हो गया ।
जमीं हिल जाती है आसमां नहीं हिलता
छत टूटी तो सच यह बेअसर हो गया ।
क़दम क़दम पर होने लगे हैं हादसे
खतरे में जिंदगी का हर पल हो गया ।
बीमारी ने सूरत इतनी बिगाड़ दी
दूर आइना भी मुझसे अब हो गया '

कभी दिन बरस सा लगता है .

कभी दिन बरस सा लगता है
वक़्त कभी एकदम गुजरता है।
सोचता रह जाता है आदमी
मुंह से कुछ निकल पड़ता है।
घायल कर देता है जिस्म को
तीर जब कमान से निकलता है।
मेह्नत सब ही किया करते हैं
चोटी पर एक ही पहुँचता है।
हार का गम बर्दाश्त नहीं होता
आदमी जीते जी मरता लगता है।

Monday, July 5, 2010

बेडरूम उसका खाली पड़ा है

बेडरूम उसका खाली पड़ा है
डबलबेड आँगन में पड़ा है।
ड्राइंगरूम में जगह नहीं है
फर्नीचर गलियारे में पड़ा है।
अपने रस्मो रिवाज़ हैं उसके
हर हाल में वह खुश बड़ा है।
नहीं है चिंता कोई उसको
अपनी धुन का पक्का बड़ा है।
अपने में मस्त है वह बहुत
उसे न किसी से कोई गिला है।
खुद्दार है वैसे तो बहुत वह
इन्सां न ऐसा कोई मिला है।

Friday, July 2, 2010

दिल गम का तहखाना है

दिल गम का तहखाना है
मोहब्बत इसका फसाना है ।
है खुद से नहीं वाकिफ दिल
यह खुशियों का खज़ाना है ।
एक एक कर इस दिन ने
तो रोज़ बीत जाना है ।
दोस्ती दुश्मनी के रिश्ते ने
यहीं पर ही रह जाना है ।
जाना है उस घर सबको
इस घर न कोई ठिकाना है।
इस घर के उस घर के बीच
जिंदगी एक मैखाना है ।
अपना किरदार निभाकर
सबने जहां छोड़ जाना है।
जिंदगी झीनी चादर है
इसने तो फट जाना है ।

Tuesday, June 29, 2010

हाले दिल बयाँ करना हमारी आदत है

हाले दिल बयां करना हमारी आदत है
पौ में फट जाना रात की आदत है।
परेशानियाँ मेरे लिए कोई नई बात नहीं
परेशानियों में घिरे रहना मेरी आदत है।
बड़े जतनसे उसे बोलना सिखाया था
मेरी हर बात पर बोलना उसकी आदत है।
वक़्त से भी दोस्ती निभाली मैंने अब
जान गया मिटाकर बनाना उसकी आदत है।
ख़ुशी मुझ से बिछड़कर चैन कैसे पा गई
तकदीर को कोसना इंसान की आदत है।
हँसना रोना कौन किसको सीखा पाया है
यह तो फ़ज़ा की रंग बदलती आदत है ।
एक नन्हा सा दिया जलता है तमाम रात
अँधेरे से लड़ते रहना उसकी आदत है ।

Monday, June 28, 2010

माँ और सास

एक माँ को अपने बेटे
बहुत अच्छे लगते हैं,
चाहे कितने ही नाकारा हों
आवारा हों ,निकम्में हों
बहुत अच्छे लगते हैं।

एक सास को दूसरों की बहुएँ
बहुत अच्छी लगती हैं,
चाहे जाहिल हों ,फूहड़ हों ।
काम करने का सलीका भी
उन्हें न आता हो पर
बहुत अच्छी लगती हैं।

अपनी बहु चाहे
कितनी सुंदर , सुघढ़
सलीकेदार हो ,
म्र्दुव्यव्हार हो ,
उतनी अच्छी नहीं लगती जितनी
दूसरों की बहुएं अच्छी लगती हैं।

Sunday, June 27, 2010

कभी सूरज के गोले सा तपता रहा.

कभी सूरज के गोले सा तपता रहा
कभी चाँद बनकर मचलता रहा ।
बादल बनकर उड़ जाता कभी
शबनम बनकर पिघलता रहा ।
जिसने पुकारा संग हो लिया
पाँव में एक घाव था रिसता रहा ।
मज़बूरी उसकी थी तकदीर मेरी
ख्वाब एक यतीम सा पलता रहा ।
मैं जहां था वहीँ का वहीँ रह गया
ले फन शायरी सबसे मिलता रहा।

Saturday, June 26, 2010

बेमिसाल होता है

हुस्न कभी सर-ता-पा कमाल होता है
सुर्ख होठों पर तिल बेमिसाल होता है ।
असीम सुन्दरता की मूरत है तू , तुझे
उर्वशी कहूं या वीनस सवाल होता है ।
लज्जत है कशिश है नखरें हैं बहुत
हुस्न खुद पर ही निहाल होता है ।
मौज में आया हुआ समुंदर है तू
तुझे देखकर आइना बेहाल होता है ।
दिल उलझ कर रह जाते हैं जिसमे
हुस्न ऐसा खुबसूरत जाल होता है ।
तारीफ में लफ्ज़ भी ढूंढें नहीं मिलते
ग़ज़ल से अच्छा तेरा गजाल होता है।

Friday, June 25, 2010

पूछती है

खिजां से बहार का पता पूछती है
सन्नाटों से हंगामें का पता पूछती है।
अक्ल की नादानी का ज़िक्र क्या करें
एक सूफी से मैखाने का पता पूछती है
चेहरा खिलखिलाया रहता था जो
हंसी उस चेहरे का पता पूछती है ।
सिर झुकाने से कृष्ण नहीं मिलता
राधा उसके रहने का पता पूछती है।
फूल एक रक्खा था किताब में हमने
मोहब्बत पन्ने का पता पूछती है।
श्रृंगार का सामान हाथ में लिए
खूबसूरती आईने का पता पूछती है।
जो इश्क में दुनिया भुलाए बैठे हैं
चिट्ठी घर का उनके पता पूछती है।
जिनकी दहलीज से सूरज उगता है
तकदीर उनसे जगने का पता पूछती है।

Monday, June 21, 2010

पेट लिखने से नहीं भरता

वह कभी बाहर नहीं निकलता
कोई काम मन से नहीं करता ।
मेहनत तो करनी पड़ती है
घर वायदों से नहीं चलता ।
बातें करने से क्या होगा
समाज इनसे नहीं बदलता ।
वक़्त बहुत बलवान होता है
क्यों इंसान इससे नहीं डरता।
भूखे मरते हैं शायर कवि
पेट लिखने से नहीं भरता ।

आज की रात बहुत भारी है

आज की रात बहुत भारी है
किसी के जाने की तय्यारी है।
गम में डूबा है हर कोई
दिल सबका बहुत भारी है।
है इलाज़ नहीं इसका अब
इसको कैसी बीमारी है ।
बेबस बना है हर कोई
छाई कैसी लाचारी है ।
कष्ट है बहुत इसको
हुआ दम निकलना भारी है।
खुदा निजात देदे इसे
अब बनी सांस लाचारी है।
हे रब तेरी माया यह
बिलकुल अजब न्यारी है।
बनी सांस लाचारी है ।

कभी उलझी कभी सुलझी

कभी उलझी कभी सुलझी
इसी तरह से जिंदगी गुजरी।
आँगन में गम बरसा कभी
आंचल में ख़ुशी बिखरी ।
कभी पलकों से शाम
उदास रोती हुई बिछड़ी।
सुबह की लाली में कभी
उम्मीद मिलन की चमकी।
दोस्तों ने गम दिया कभी
दुश्मनी में खुशबु भी महकी।
आइना घमंड का चटखा
फिर कमी किसी की अखरी।
बस इतना जरूर पाया हमने
करके सेवा बड़ी उनकी
बजुर्गों कि दुआओं से ही
तो है यह जिंदगी महकी ।

Saturday, June 19, 2010

तुम्हारे जाने पर

तुम्हारे जाने पर हर आँख शबनमी होगी
हर समय महसूस आपकी कमी होगी ।
कभी न बुझेगा तुम्हारी यादों का चिराग
कि उसी से हमारे दिल में रौशनी होगी ।

कमाल होता है

हर वक़्त कुदरत का कमाल होता है ।
सूरज सुबह निकलता है लाल होता है ।
दिन भर कड़ी मेहनत करने के बाद
ढलता है तब भी वह लाल होता है ।
मिटटी में मिल इंसां मिटटी से बनता है
दिल उसकी कारीगरी पर निहाल होता है।
एक सांचे में ढलके फितरत है अलग क्यों
जेहन में रह रहकर यह सवाल होता है।
जो उसकी नेमतों की कद्र नहीं करता

अमीर होकर भी शख्श वह कंगाल होता है।

Wednesday, June 16, 2010

दवा बन जाता है

दर्द का हद से गुजरजाना
कहते हैं दवा बन जाता है।
सर्द हवा का झोंका कभी
तपता सहरा बन जाता है।
जब मुंह से बात न होती हो
जुर्म देखना बन जाता है ।
श्रद्धा से देख लिया अगर
पत्थर खुदा बन जाता है।
चाहत जब सुकूँ छीन लेती है
जीना सजा बन जाता है।
घर की दीवारों पर उतरा दुःख
सांसों का हिस्सा बन जाता है।
माँ के पैरों तले जन्नत होती है
दिल बाप का रस्ता बन जाता है।
उसकी नेमतों की क़दर नहीं की टो
करम कहर सा बन जाता है ।

तलवार से नाख़ून नहीं कटते

तलवार से नाख़ून नहीं कटते
तपते सहरा में बादल नहीं बरसते ।
नासूर बन जाते हैं धीरे धीरे
जख्म सुईं से कभी नहीं सिलते ।
चार तिनकों की छत के नीचे
तेज बारिश धूप से नहीं बचते ।
गम में टूटकर बिखर जाते हैं
दिल वह कभी नहीं सम्भलते ।
जिनके हौसले बुलंद होते हैं
उनके क़दम पीछे नहीं हटते ।
जो अपना नसीब खुद लिखते हैं
वह किसी शख्श से नहीं डरते।
नेकियाँ करते रहने से सदा
अच्छे दिन कभी नहीं बदलते ।

प्रश्न नया हो गया

जो संग तराशा खुदा हो गया
दर्द खुद ही मेरी दवा हो गया ।
उदासी जाने कहाँ से घिर आती है
यह सोचते एक अरसा हो गया.
बज्म में तो खुशियाँ बरसी थी
वक़्त जल्दी ही विदा हो गया।
सुख के पल थोड़े से ही थे वह
जख्म फिर से हरा हो गया।
क्यों हमें डराती रहती हैं खुशियाँ
हर बार यह प्रश्न नया हो गया।

Saturday, June 12, 2010

कौन आसमान छुआ करता है

जमीन से उठकर कौन आसमान छुआ करता है
वक़्त हर वक़्त कहाँ मेहरबान हुआ करता है ।
किसी की आँख से पोंछ देता है जो आंसू
आदमी उसके लिए भगवान हुआ करता है ।
हो सके तो खुद की जेब पर भरोसा रखना
दूसरों का रहमोकरम अहसान हुआ करता है
जो अपने क़द से भी लम्बा होता चला गया
किसी के गले लगने से परेशान हुआ करता है।

जनाब के लिए

कुछ शक्लें बनी हैं बस ख्वाब के लिए
जैसे कहानियाँ बनी हैं किताब के लिए।
बैचैनी भाग रही है इंसान के पीछे
मसीहा नहीं है कोई दिले बेताब के लिए।
पसीना बहाकर खेत में गलाई थी हड्डियाँ
अब लड़ रहा है सूखे से हिसाब के लिए ।
तलाश रहा है झुर्रियों में क्या पता नहीं
उम्र कम पड़ गई है हर जबाब के लिए।
किसी को रोते देखकर हंसना नहीं अच्छा
न जाने कौन सा आंसूँ बना है तेजाब के लिए।
मिटटी खाकर बच्चा जीएगा कब तलक
पेट भरने को रोटी चाहिए जनाब के लिए ।

Friday, June 11, 2010

बदलते रहते हैं

रेत पर नक्शे क़दम बदलते रहते हैं
नाम रोज़ दिन के बदलते रहते हैं ।
कैसे होगी मोहब्बत की मंजिल तय
वो चलते चलते रस्ते बदलते रहते हैं।
बडे ही मतलबी होते हैं कुछ लोग
हर वक़्त पैंतरे बदलते रहते हैं ।
कहने को यूँ तो हमारे हैं सब
मौसम की तरह से बदलते रहते हैं ।
किसी का होना किसी को खोना पड़ता है
ऊसूल जिन्दगी के बदलते रहते हैं ।

निशाँ नहीं मिलते

दश्त-ओ-सहरा में गुलिश्तां नहीं मिलते
रहने को कहीं भी मकां नहीं मिलते ।
चलती हुई लू के थपेड़े तो मिलते हैं
मंजिल तक पहुंचने के निशाँ नहीं मिलते।
दूर तक बस्ती कोई आबादी नहीं मिलती
रात में सिर पर आसमां नहीं मिलते ।
गुज़र जाती है शब् उदास करके मुझे
तन्हाई में एहसासे-जियां नहीं मिलते ।
रह रह के सिमटते हैं घेरे मेरी बाँहों के
फरेब जिंदगी में कहाँ नहीं मिलते ।
अपने वजूद में सिमटा रह जाता हूँ मैं
हम जहां हैं तुम कभी वहाँ नहीं मिलते ।

Tuesday, June 1, 2010

मेरे हिस्से में माँ आई

वो बड़ा था उसके हिस्से में कोठियां आई
जो मंझला था उसके हिस्से में दुकाँ आई।
मै छोटा था पढ़ता खेलता कूदता था
मेरे हिस्से में मुझे पालती मेरी माँ आई।
बहुत खराब है माहोल इस दौर का
बिगड़ते वक़्त में न दौलत काम यहाँ आई।
बड़े से बड़ा हादसा होते होते टल गया
मुझे बचाने में सदा काम दुआएं माँ आई।

आइना पोंछते रहे

ता-उम्र खिलिन्दियाँ करते रहे
चेहरे की धूल न साफ़ की
आइना पोंछते रहे ,
उभरती शिकनों का अहसास
जब हुआ
खोया बचपन आईने में
ढूंढते रहे।

शहर का हर चलन नया देखा

हमने शहर का हर चलन नया देखा
गमले में मन्दिर के पीपल खड़ा देखा।
निकल पड़ते हैं सुबह जल्दी ही सब
घर में सारा दिन ताला पड़ा देखा ।
अंगडाइयां लेकर मचलता समन्दर
अज़ब तरह के तमाशे करता देखा।
आसमान छूने को बेताब हुआ वह
सदा रेत की गोद में सिमटा देखा।
किसी को कोई पहचानेगा कैसे यहाँ
इन्सान खुद से ही बेखबर बना देखा।
ईमान की भी कीमत नही देखी कोई
दुकान की कीमत पर बिका देखा।
अपनी शक्ल में नही मिलता कोई भी
नकाब तरह तरह का चढ़ा देखा ।

दुकान सजी हुई है

बेईमानी की दुकान सजी हुई है
हर और नुमाइश भरी हुई है।
खरीदारी में शरीक होने को
इमानदारी बहुत डरी हुई है।
खून बेचकर रोटी खरीदी है
आँख ख़ुशी से भरी हुई है।
कुछ पल की ख़ुशी के बाद
आँख फिर रोने को भरी हुई है।
गम दरदर भटक रहा है
ख़ुशी सहमी सी डरी हुई है।
ख्वाब दिखाई देंगे कैसे
आँख आंसुओं से भरी हुई है।
हर और जलसे हो रहे हैं
जनता आतंक से डरी हुई है।
खौफ में है जिंदगी हर पल
फिर भी कहीं न ठहरी हुई है।

ग़ज़ल

ग़ज़ल उर्दू में कही हिंदी में लिखी जाती है
यह बड़े चाव से हर दिल की हुई जाती है।
मिसरों को बहर के पहलू में सज़ा करके
मुरीदयह काफिया रदीफ़ की हुई जाती है।
नाजों अंदाजों की कभी कसीदों की हुई
कभी बूढी नहीं हमेशा जवान हुई जाती है।
मिसाल कहीं ढूंढें से नहीं मिलती इसकी
खूबसूरती में ग़ज़ल गजाला हुई जाती है।
उलझे बालों वाले शायरों की दीवानी थी
अपने अंदाज़ में अब सबकी हुई जाती है।
शराब शबाब आशिकी की हुआ करती थी
अब हर तरह के अशआर की हुई जाती है।
कम से कम शब्दों में बड़ी बात कह जाती है
ग़ज़ल अमीर गरीब सब की हुई जाती है ।

Monday, May 31, 2010

नहीं मिलता

तुम्हारे घर का कहीं पता नहीं मिलता
जमीं पर रहकर आसमा नहीं मिलता।
किताबें रोज़ उठाकर खंगाल लेता हूँ
नसीब का कहीं लिखा नहीं मिलता ।
जरा सी धूप बदन को बुरी लगती है
बिन इसके फूल भी निखरा नहीं मिलता।
सूज़ जाती हैं आँखें रो रो कर बहुत
अश्क बहने को और रस्ता नहीं मिलता।
दूधिया रातों में बैचेन समंदर के कभी
मचले पहलू में चाँद उतरा नहीं मिलता।
लिख देता रोज़ नयी कहानी मुहब्बत पर
रेत पर कल का ही लिखा नहीं मिलता ।
हम भी खुश हो लेते ,न रोते नाम यदि
वसीयत में दूसरा लिखा नहीं मिलता ।

Saturday, May 29, 2010

नन्ही बिटिया की कहानी

बिटिया अब सयानी हो गयी
बड़ी होकर नूरानी हो गयी।
पांच हाथ की साडी पहनकर
उमंग उसकी रूमानी हो गयी।
परियों की कहानी सुनना
अब आदत पुरानी हो गयी ।
गुड्डे- गुड़ियों संग खेलना
भी अब एक कहानी हो गयी।
कल्पनाओं में भ्रमण करती
खुशियों की दीवानी हो गयी।
सोलह श्रृंगार करके अपने
पिया की महारानी हो गयी।
समय के साथ साथ बिटिया
पूरी हिन्दुस्तानी हो गयी।
समय जैसे बीता तो अपने
बच्चों की नौकरानी हो गयी।
बेटी- बेटों को सुनाती फिर
परियों की याद सुहानी हो गयी।
बच्चों की सेवा करने में ही
उसकी खत्म जवानी हो गयी।
समय आगे और बढ़ा तो
फिर एक नयी कहानी हो गयी।
परियों की कहानियां अब
उसको याद जुबानी हो गयी।
अपना फ़र्ज़ निभाती निभाती
आत्म संतोष की कहानी हो गयी।
नाती - पोतों के संग खेलती
वह बूढी दादी नानी हो गयी।
बाबुल के आँगन की नन्ही
बिटिया कितनी सयानी हो गयी।
आत्म संतोष की कहानी हो गयी
बिटिया दादी -नानी हो गयी ।

यकीन रख

कभी न कभी अँधेरा छंटेगा यकीन रख
निगाहों में सबेरा बसेगा यकीन रख ।
माना आग ने तेरा पोर पोर जला दिया
चिनार का मौसम भी आएगा यकीन रख ।
यह कैसा न्याय है हर बात झूठी हो गयी
जल्द ही खुलासा हो जायेगा यकीन रख ।
बहलाने वाले ने खूबसूरती से बहला दिया
हर मुद्दा फिर से उछलेगा यकीन रख ।
उठा के अपने हाथ कुछ मांग तो ले उससे
बिगड़ा मुकद्दर जरूर सम्भलेगा यकीन रख ।

नहीं मिलता

मल्टीप्लेक्स तो मिलते हैं थिअटर नहीं मिलता
अब दीवार पर टंगा कोई कलेंडर नहीं मिलता ।
कभी रेडियो का होना स्टेट्स सिम्बल होता था
अब बजता कहीं रेडियो ट्रांजिस्टर नहीं मिलता ।
गाँव दर गाँव उजड़ते हैं तो एक शहर बस्ता है
शहर में गाँव का कोई खँडहर नहीं मिलता ।
किताबें दर्द की बहुत मिलती हैं शहर में
बस ख़ुशी का ही कोई चेप्टर नहीं मिलता ।
गुरु और चेले का रिश्ता भी पैसे में बिक गया
अब टयूटर तो मिलते हैं टीचर नहीं मिलता ।
शुक्र है गाँव मे इंसानियत अभी बाकी है
शहर मे गाँव जैसा कोई करेक्टर नहीं मिलता ।

Friday, May 28, 2010

फिसल जाती है

मुट्ठी से रेत फिसल फिसल जाती है
तकदीर पल भर में बदल जाती है ।
आदमी सोता ही रह जाता है
रात अल-सुबह में बदल जाती है।
बोतल में बंद शांत बनी रहती है
बाहर आते ही छलक जाती है।
गले से नीचे उतरती है जैसे ही
तबियत शराब की मचल जाती है।
जिंदगी का क्या है जब बहलती है
जरा सी बात से बहल जाती है।

माँ नहीं होती

बही खाते रखने वाली कोई माँ नहीं होती
ममता का हिसाब रखने वाली माँ नहीं होती ।
अपने प्यार का घरोंदा बनाते हुए किसी
इकरारनामे पर दस्तखत कराती माँ नहीं होती ।
शरारतों अठखेलियों का चैक संभाले रखती है
भीड़ में उसे भुनाने वाली माँ नहीं होती ।
माँ का दिल तो विशाल होता है बहुत
छोटे दिल वाली कोई माँ नहीं होती।
दुलार करती हुई माँ डांट तो देती है
बद्दुआ देने वाली कभी माँ नहीं होती।

चिंता रहती है .

हर समय आदमी को पेट की चिंता रहती है
क्या पकाएं क्या खाएं इसकी चिंता रहती है ।
डॉक्टर को दिखाने पर भी तसल्ली होती नहीं
दवा ठीक मिली की नहीं ,यही चिंता रहती है ।
चेहरे पर उम्र की परछाइयाँ दिखाई न दें
बढती उम्र के साथ बस यही चिंता रहती है ।
दिन गुजार लेता है आदमी कहीं भी कैसे भी
शाम ढलते ही घर लौटने की चिंता रहती है ।
अपना न होकर रह सका यह दिल कभी भी
इसे किसी का बनकर रहने की चिंता रहती है ।

Thursday, May 27, 2010

अपनी बेकद्री का क़र्ज़

पानी की बर्बादी व तबाही यूँ ही अगर होती रही
जरूरत भर पानी को इन्सान मोहताज़ बन जायेगा।
पानी मयस्सर नहीं होगा खुश्की बढती जाएगी
धरती का अंत: भी जल विहीन बन जायेगा।
धरती के अन्दर पानी का जलस्तर गिरता जायेगा
सम्र्सिब्ल जेत्प्म्प का हलक सुख जायेगा।
पानी मिलेगा न पीने को न मिलेगा जीने को
पोखरे नदियाँ ताल सब सुखा पड़ जायेगा।
अपनी बेकद्री का क़र्ज़ पानी कुछ यूँ चुकाएगा
सब तरसेंगे पानी को पानी बस आँखों में रह जाएगा।

आदत है

ख्वाबों को आते रहने की आदत है
आदतों को बदलते रहने की आदत है।
अपना न होकर रह सका दिल कभी
इसे किसी दिल में रहने की आदत है।
अपने पैरों पर खड़ा हो जाता है मासूम जब
माँ के दिल को बल्लियों उछलने की आदत है।
सुबह लालिमा उभरती है आसमान में
उदास शाम को रोज़ ढलने की आदत है।
लम्हा लम्हा धूप उतरती जाती है ज्यों
उम्र को धीरे धीरे गुजरने की आदत है।
मुफलिसी का दर्द वही समझता है
जिसके पेट को भूखे रहने की आदत है।
मेरे हौसलों का दम तू जानता तो है
मुझे हर हल में खुश रहने की आदत है।
चलने दे सफ़र में अकेला ही मुझे
मुझे दुनिया की नज़र में रहने की आदत है।

Wednesday, May 26, 2010

जन्म दिन तो बहाना था

जन्म दिन बहाना बना तुम्हे पास बुलाने का
कुछ पल संग बैठ कर मिलने मुस्कराने का।
तुम्हारा आना दिल को अच्छा लगा बहुत
मन में आगया था कुछ सुनने सुनने का।

रौनके मेरे घर आयी

आप आये तो रौनकें मेरे घर आयी
चमन की तमाम बहारें मेरे घर आयी।
हैरान हूँ अपने मुक़द्दर पर मैं आज
खुशियाँ लगके कतारें मेरे घर आयी.

Tuesday, May 25, 2010

ख़ास खबर

जब उनकी खूबसूरती का चरचा आता है
लबों पर हमारा भी ज़िक्र उभर जाता है .
खबर एक ख़ास खबर बन जाती है
किस्सा गली शहर का बन जाता है।
लोग मुझे अज़ब नज़र से तकते हैं
शहर में जैसे कोई अजूबा दिख जाता है।
फिर कुछ और हुआ हो न हुआ हो
उन्हें देख मेरा भी सब्र बिखर जाता है।

उदासी अच्छी नहीं लगती

ख़ूबसूरत चेहरों पर उदासी अच्छी नहीं लगती
नए घर में चीजें पुरानी अच्छी नहीं लगती।
जिनसे पहचान है मेरे होने की, बच्चों को दीवार पर
तस्वीर मेरे उन बजुर्गों की अच्छी नहीं लगती ।
दोस्ती कोई पल दो पल की बात नहीं हुआ करती
चाहत मजबूरियों में पली अच्छी नहीं लगती।
बर्दाश्त करने की हद से अब दम घुटने लगा है
वक़्त की हर वक़्त की मार भी अच्छी नहीं लगती।
कोई मेरे दर्दो-गम को सराहेगा कब तलक
हर वक़्त की शायरी भी अच्छी नहीं लगती।

अब तो खुशियाँ भी किस्तवार मिला करती हैं

अब तो खुशियाँ भी किस्तवार मिला करती हैं
उधार में ली गयी चीजें उपहार लगा करती हैं।
लक्ष्मी की मूर्तियाँ तराशता है गरीबी में रहता है
छेनियाँ कहाँ किस्मत संवार दिया करती हैं।
जिसने बक्शा था कड़ी धूप में साया कभी
ख्वाहिशें उसी पेड़ को काट दिया करती हैं।
जिंदगी पर पहरा है मुक़द्दर का सदियों से
खुशियाँ नहीं बार बार साथ दिया करती हैं।
सुख दूर से गुजरते हैं गुजरते ही चले जाते हैं
पीड़ा है जो उम्र भर साथ दिया करती हैं।

आईने काले पड़ गए

दीवारें कल ही पुती थी आज जाले लग गए
धूप दिन भर खूब खिली थी रात पाले पड़ गए।
फैसले मत बदलना डरकर किसी के कहने से
जो चीखे बहुत थे सबके होठों पे ताले पड़ गए।
कुछ पल के लिये ठहरकर दिल को कहीं उंडेल दे
तडपेगा जब लगेगा तन्हाइयों के छाले पड़ गए।
जरा सी हिम्मत दिखाकर तूने कर ली जो गुजर
कोई न जानेगा तुझे रोटियों के लाले पड़ गए।
अपने चेहरे पर लगी स्याही को तो पोंछ ले
उजाला न हुआ तो लगेगा आईने काले पड़ गए।

Monday, May 24, 2010

आँखों को बेनकाब कर देगा

आँखों को बेनकाब कर देगा
वो मिलेगा तो बेख्वाब कर देगा।
संदल से महकते जिस्म को मेरे
अपनी खुशबू से गुलाब कर देगा।
इस क़दर चूमेगा हंसके पेशानी
अपनी छुहन से सैलाब कर देगा।
उसका रुका रुका सा लहजा
नर्म हवाओं को बेताब कर देगा।
बैचेनी का आलम होगा इतना
तमाम उम्र का हिसाब कर देगा।
पिघल कर पत्थर मोम हो जायेगा
वो इतना लाजवाब कर देगा।
रिफाक्ते-शब् में प्यासा चकोर
मुझे पिघलता महताब कर देगा।

Tuesday, May 11, 2010

तेरे शहर में

तेरे शहर में लफ्ज़ नहीं मिलते
करने को बात शख्स नहीं मिलते।
देख कर दुःख दर्द किसी का यहाँ
बहते आँखों से अश्क नहीं मिलते।
जरा सी बात पर नज़र फेर लेते हैं
लोग यहाँ मुसलसल नहीं मिलते।
हसरतें बगल से निकली चली जाती हैं
लेकर दिलों में उल्फत नहीं मिलते।
सूरज निकलता है चाँद भी निकलता है
करते अंधेरों से सुलह नहीं मिलते।
सर-ता-पा समन्दर में भीगे तो मिलते हैं
बारिश में लोग करते रक्स नहीं मिलते।
पत्थरों से चीने हुए तेरे शहर में
दिलों के फैले दश्त नहीं मिलते।

अपना नसीब

न हुआ कभी न हुआ नसीब ,अपना नसीब
सुधरा न कभी बिगड़ा ही रहा अपना नसीब।
बुरा तो था पर इतना भी तो बुरा नहीं था
कि अपने को ही बुरा लगने लगा अपना नसीब।
सितारों ने चाहा था मुझे हर गम से बचाना
किसी भी कीमत पर न बदला अपना नसीब।
हाथ उठाकर माँगी थी आँखों ही आँखों में
दुआओं से भी नहीं बदला अपना नसीब।
लम्बे समय से साथ रह रहा था अपने
सदा बेगाना बन कर रहा अपना नसीब।
चैन मिला था किसी के शाने पे रख के सीर
तब भी सिसकता रहा अपना नसीब।.
दिल करता है तराश दूं छेनी हथोड़े से
लगता है फिर भी न बदलेगा अपना नसीब।

Saturday, February 6, 2010

बहारे आलम से बहरे आलम का दर्ज़ा दिला दिया
एक मात्रा की कमी ने क्या से क्या बना दिया।
सकते में हूँ मैं बारहा यह सोच सोच कर
गलती ने आदमी को क्या से क्या बना दिया।
मेरी बेखुदी का कोई सदका तो उतार दे
मुझे आदतों ने जहान का चर्चा बना दिया।
है मेरे पागलपन का भी इलाज़ न कोई
रिश्तों की अहमियत ने मुझे तन्हां बना दिया।
सीना है आखिर कोई कब्रिस्तान तो नहीं
राज़ इसमें दफ़न होना क्यों किस्सा बना दिया।

दुश्मन से नहीं अपनों के सवालात से डर लगता है

रिश्तों से नहीं उनकी मुलाक़ात से डर लगता है।

वह जो पतली सी गली तन्हां चली जाती है

उसपे होती हुई खुराफात से डर लगता है।

बहुत वाकिफ हूँ मैं कमजोर चाहतों से तेरी

संग दुनिया बसाने के ख़यालात से डर लगता है।

मैं तेरा शहर छोडके चला भी जाता कहीं

तेरी तस्वीर लेजाने के ज़ज्बात से डर लगता है।

घर में आकर चुपके से ठहरेंहैं मुसाफिर

उनके बढ़ते होसलों के ख्यालात से डर लगता है।

बहुत तड़फ कर संजोई है जिंदगी हमने

टूटकर बिखरने के अहसासात से डर लगता है।

अभी तक तो हम सितमगरों से ही डरा करते थे

अब अपनी चैनो सुकून की कायनात से डर लगता है।

न शक्ल है न नाम न पहचान ही कोई उनकी

फुटपाथ पर जिंदगी बिताने के ख्यालात से डर लगता है।

चंद रोज़ा जिंदगी है यूं ही जाया न हो जाए

दिल में उठते ऐसे सवालात से डर लगता है।

रोज़ दिन एक एक कर मरता चला गया

हर राज़ सीने में दफ़न करता चला गया।

बिखरी हुई खुशियों की चाहत में

गमों का सिलसिला लम्बा बनता चला गया।

मिटा न सकी मुझको मेरी खुद की आफतें

में अपनी बरबादियों पर हंसता चला गया।

बदसूरतों को आईना अच्छा नहीं लगता

में आईने में खुदको देखता चला गया।

कुछ अलग लुत्फ़ होता है गुमनामी का भी

में काठ का एक पुतला बनता चला गया।

मोहब्बत को दीवार में चिनता देखा है

जुबान को बात बात पे फिसलता देखा है।

इन्सान को इन्सान पर ही भरोसा न रहा

ईमान खुले बाज़ार में बिकता देखा है।

प्यार करते हुए पीठ में खंज़र घुपा देते हैं

कहर को करम के साए में पलता देखा है।

जिंदगी खत्म हो जाती है,बदनसीबी नहीं

गरीब को यूं सिसकते मरता देखा है।

दंगों में उजड़ गया शहर बचा क्या है

जमीर को दहशत के साए में मरता देखा है।

हर अंदाज़ गूम होके रहगया दिल का

जबसे रिश्ता पैसे में बिकता देखा है।

उमीदें भी दम तोड़ गयी बिमारी में

हमने दर्द दवा की दूकान पे बिकता देखा है।

बस्तियां क्यों लोग बसाते हैं

फिर बसाकर जहाँ छोड़ जाते हैं।

सुनसान हवेली में परिंदों को

शोर मचाने को छोड़ जाते हैं।

सूनी दीवार पर टंगे आईने

बेखटक मुंह पर बोलजाते हैं।

बदशक्ल हैं जो शक्ल देख

ख़ूबसूरत आईने तोड़ जाते हैं।

ऊंची उछालें समुंदर की देख

सब्र किनारे भी छोड़ जाते हैं।

किस किसको समझा ओगे तुम

लोग बहुत सवाल छोड़ जाते हैं ।

न वो हैं न नामोनिशान उनके

कुछ लोग निशान तोड़ जाते हैं।

मैंने आँखों में झांककर पूछा

लोग आंसू क्यों छोड़ जाते हैं।

दुनिया में कौन सदा किसका हुआ करता है

आदमी तो बस मतलब का हुआ करता है।

बेसुध हुआ भटका करे इंसान कहीं भी

पता उसके पास सदा घर का हुआ करता है।

गुजरनेवाला था एक हादसा हादसा जो मुझ पे

करम वह किसी और का हुआ करता करता है।

हम उठा लेते हैं पढ़ लेते हैं तेरे ख़त को

हिस्सा वह अब किताब का हुआ करता है ।

लड़ते रहे ताउम्र हम जिसके लिए

वह ख्वाब तो सच किसी और का हुआ करता है।

घड़ी दो घड़ी का ही मेला है जिंदगी बस

लम्बा परचा तो हिसाब का हुआ करता है।

वो भी क्या दिन थे

जब गाँव में मेरी बैलगाड़ी सबसे अगाडी की धुन छेडती थी

तो गली मोहल्ले के लडके मीलो तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते थे

मैं उत्साह से भरा रहता था।

यह भी क्या दिन हैं

शहर की बड़ी बड़ी सड़कों पर मेरी मोटरकार

धीरे धीरे रेंगती चलती है और कोई गाडी

मेरी गाडी से टकरा न जाए

दर पीछा नहीं छोड़ता।

खुशी मिली न खुशी के करीब पहुंचे
जब लेके हथेली पे नसीब पहुंचे ।
खुशी आगे सरकती चली गयी
जब मिलने उसके करीब पहुंचे ।
सोना बिखरा था सड़क पर
भरम टूटा जब उसके करीब पहुंचे।
कांच के टुकड़ों में सुनहरी किरण
चमकी थी जब चुगने गरीब पहुंचे।
हवा उड़ा कर ले गयी सपनो को
जब वो पूरा होने के करीब पहुंचे।

कौन कहता है बेवक्त मर जाऊँगा

काम बहुत है वक़्त से घर जाऊँगा।

घड़ी तो निश्चित है मौत की ,आनी है

काम कर के कुछ नाम कर जाऊँगा ।

बड़ी उमीदों से जला दिया हूँ

जलते जलते सुबह कर जाऊँगा।

राह का चलता मुसाफिर हूँ

मील का हर पत्थर पार कर जाऊँगा।