Sunday, December 23, 2012

नज़र तेरी बुरी है और पर्दा मैं करूं
तेरी हवस का सबब मैं ही क्यूँ बनूं !
मुझे जो मिला मुझी को घूरता मिला
उनकी बदनियत का ज़िक्र क्या करूं !
कब्ज़ा करने की ही फिराक में हैं सब
वहशत का सिलसिला मैं ही क्यूं बनूं !
एक से मुसाफिर हैं तुम भी और मैं भी
दरिंदगी का ज़ुल्म, मैं तन्हा क्यूँ सहूं !
वज़ह बस यह है कि मैं एक लड़की हूँ
संगदिल रिवाज़ों से भी बस मैं ही लडूं !
इज्ज़त के मेरी चिथड़े चिथड़े कर दिए
पत्थरों के शहर में रहूं तो कैसे रहूं !
हादसा न किसी के साथ फिर ऐसा हो
तसल्ली मिल जाये तो फिर मैं चलूं !

Monday, December 17, 2012

हम तुम्हारे अगर नहीं होते
हम इतने पत्थर नहीं होते !
यही सोच के दिन कट रहे हैं
दर्द के दिन मुक़रर नहीं होते !
बिन माँ के बच्चे का दर्द ------

दिल में बहुत वीराना है
उलझन है ,सन्नाटा है !
मुसीबतें मेरा मुक़द्दर है
न बदला मेरा फ़साना है !
हर वक्त मुद्दा मै ही बना
मुश्किलों ने मुझे तलाशा है !
चुन चुन के दर्द मिले मुझे
जैसे दर्द ही मेरा ठिकाना है !
मर्ज़ की मेरे दवा न मिली
मेरा दर्द दुनिया से निराला है !
सुबह से घर में शोर मचा था
शाम को दावत में जाना है !
चलते हुए कह गये मुझ से
मुझे अपना खाना बनाना है !
तन्हा बैठ कर, रो रो कर
मैंने खाया एक निवाला है !
काश ! मेरा भी कोई होता
दर्द दिल में बेतहाशा है !
मेरे आंसू ही मेरा ज़ेवर है
नश्तरों ने इन्हें तराशा है !
पैदायशी पर भी सवाल उठे
माँ तुझ को यह बतलाना है !
सदियों ज़लालत सही मैंने
ज़िल्लतों ने मुझे नवाज़ा है !
ख़ुदकुशी भी मै कर न सका
दिल सोचता तो रोज़ाना है !
तू मुझे छोड़ के चली गई माँ
बस इतना मेरा अफ़साना है 1

Thursday, December 13, 2012

देखी राह तुम्हारी हमने
तन्हा रात गुज़ारी हमने !
पूरी रात टहल टहल कर
खुशबु पहनी तुम्हारी हमने !
दरवाज़े को तकते तकते
सारी रात गुज़ारी हमने !
ज़ुल्फ़ें यूं ही खुल गई थी
बिन शीशे के संवारी हमने !
पलकों में सजा रखी थी
एक तस्वीर न्यारी हमने !
नज़र उसकी दिल ही दिल में
कितनी बार उतारी हमने !
तुमको सोचा जब भी सोचा
जिंदगी सोच गुज़ारी हमने !
चाँद आया नहीं गोद में
देखी यह लाचारी हमने !
नींद ने आँख पे दस्तक न दी
लोरी बहुत पुकारी हमने !
पहरों करवट बदली हमने
ऐसे रात गुज़ारी हमने !

Saturday, December 8, 2012

उससे निगाह मिला सके, किसमे ताब थी
उसकी आँखों में चमक ही लाज़वाब थी !

उसकी महक ने ही रौंद दिया ज़िस्म को
पता नहीं कैसी वह जादुई शराब थी !

सुलगती थी रूह और तपता था बदन
वह तो मगर कोई ख्यालो ख़ाब थी !

जी पढने का करे तो देखते  रह जाएं
वह तस्वीरों की ऐसी ही क़िताब थी !

फ़रिश्ते भी उसे देख कर के हैरान थे
वह महताब थी कि वह आफ़ताब थी !

Monday, December 3, 2012

ख़ुशी को किसी की नज़र लग गई
या ग़म को मेरी ही उम्र लग गई !

दिन दो चार मांगे थे जीने के लिए
मौत को पहले ही ख़बर लग गई !

बेहद उदास थे, रात में हम लोग
चश्म तर थी, फिर भी मगर लग गई !

यह पूछो वक्त से, शायद वो बताए
आग जो लगनी थी किधर लग गई !

दर्द छुपाकर रखा था, दिल में तेरा
इसकी भी दुनिया को ख़बर लग गई !

एकदम से चूम लिए होंठ, मैंने तेरे
मुझे भी शायद हवाए शहर लग गई !