Saturday, February 6, 2010

बहारे आलम से बहरे आलम का दर्ज़ा दिला दिया
एक मात्रा की कमी ने क्या से क्या बना दिया।
सकते में हूँ मैं बारहा यह सोच सोच कर
गलती ने आदमी को क्या से क्या बना दिया।
मेरी बेखुदी का कोई सदका तो उतार दे
मुझे आदतों ने जहान का चर्चा बना दिया।
है मेरे पागलपन का भी इलाज़ न कोई
रिश्तों की अहमियत ने मुझे तन्हां बना दिया।
सीना है आखिर कोई कब्रिस्तान तो नहीं
राज़ इसमें दफ़न होना क्यों किस्सा बना दिया।

दुश्मन से नहीं अपनों के सवालात से डर लगता है

रिश्तों से नहीं उनकी मुलाक़ात से डर लगता है।

वह जो पतली सी गली तन्हां चली जाती है

उसपे होती हुई खुराफात से डर लगता है।

बहुत वाकिफ हूँ मैं कमजोर चाहतों से तेरी

संग दुनिया बसाने के ख़यालात से डर लगता है।

मैं तेरा शहर छोडके चला भी जाता कहीं

तेरी तस्वीर लेजाने के ज़ज्बात से डर लगता है।

घर में आकर चुपके से ठहरेंहैं मुसाफिर

उनके बढ़ते होसलों के ख्यालात से डर लगता है।

बहुत तड़फ कर संजोई है जिंदगी हमने

टूटकर बिखरने के अहसासात से डर लगता है।

अभी तक तो हम सितमगरों से ही डरा करते थे

अब अपनी चैनो सुकून की कायनात से डर लगता है।

न शक्ल है न नाम न पहचान ही कोई उनकी

फुटपाथ पर जिंदगी बिताने के ख्यालात से डर लगता है।

चंद रोज़ा जिंदगी है यूं ही जाया न हो जाए

दिल में उठते ऐसे सवालात से डर लगता है।

रोज़ दिन एक एक कर मरता चला गया

हर राज़ सीने में दफ़न करता चला गया।

बिखरी हुई खुशियों की चाहत में

गमों का सिलसिला लम्बा बनता चला गया।

मिटा न सकी मुझको मेरी खुद की आफतें

में अपनी बरबादियों पर हंसता चला गया।

बदसूरतों को आईना अच्छा नहीं लगता

में आईने में खुदको देखता चला गया।

कुछ अलग लुत्फ़ होता है गुमनामी का भी

में काठ का एक पुतला बनता चला गया।

मोहब्बत को दीवार में चिनता देखा है

जुबान को बात बात पे फिसलता देखा है।

इन्सान को इन्सान पर ही भरोसा न रहा

ईमान खुले बाज़ार में बिकता देखा है।

प्यार करते हुए पीठ में खंज़र घुपा देते हैं

कहर को करम के साए में पलता देखा है।

जिंदगी खत्म हो जाती है,बदनसीबी नहीं

गरीब को यूं सिसकते मरता देखा है।

दंगों में उजड़ गया शहर बचा क्या है

जमीर को दहशत के साए में मरता देखा है।

हर अंदाज़ गूम होके रहगया दिल का

जबसे रिश्ता पैसे में बिकता देखा है।

उमीदें भी दम तोड़ गयी बिमारी में

हमने दर्द दवा की दूकान पे बिकता देखा है।

बस्तियां क्यों लोग बसाते हैं

फिर बसाकर जहाँ छोड़ जाते हैं।

सुनसान हवेली में परिंदों को

शोर मचाने को छोड़ जाते हैं।

सूनी दीवार पर टंगे आईने

बेखटक मुंह पर बोलजाते हैं।

बदशक्ल हैं जो शक्ल देख

ख़ूबसूरत आईने तोड़ जाते हैं।

ऊंची उछालें समुंदर की देख

सब्र किनारे भी छोड़ जाते हैं।

किस किसको समझा ओगे तुम

लोग बहुत सवाल छोड़ जाते हैं ।

न वो हैं न नामोनिशान उनके

कुछ लोग निशान तोड़ जाते हैं।

मैंने आँखों में झांककर पूछा

लोग आंसू क्यों छोड़ जाते हैं।

दुनिया में कौन सदा किसका हुआ करता है

आदमी तो बस मतलब का हुआ करता है।

बेसुध हुआ भटका करे इंसान कहीं भी

पता उसके पास सदा घर का हुआ करता है।

गुजरनेवाला था एक हादसा हादसा जो मुझ पे

करम वह किसी और का हुआ करता करता है।

हम उठा लेते हैं पढ़ लेते हैं तेरे ख़त को

हिस्सा वह अब किताब का हुआ करता है ।

लड़ते रहे ताउम्र हम जिसके लिए

वह ख्वाब तो सच किसी और का हुआ करता है।

घड़ी दो घड़ी का ही मेला है जिंदगी बस

लम्बा परचा तो हिसाब का हुआ करता है।

वो भी क्या दिन थे

जब गाँव में मेरी बैलगाड़ी सबसे अगाडी की धुन छेडती थी

तो गली मोहल्ले के लडके मीलो तक मेरा पीछा नहीं छोड़ते थे

मैं उत्साह से भरा रहता था।

यह भी क्या दिन हैं

शहर की बड़ी बड़ी सड़कों पर मेरी मोटरकार

धीरे धीरे रेंगती चलती है और कोई गाडी

मेरी गाडी से टकरा न जाए

दर पीछा नहीं छोड़ता।

खुशी मिली न खुशी के करीब पहुंचे
जब लेके हथेली पे नसीब पहुंचे ।
खुशी आगे सरकती चली गयी
जब मिलने उसके करीब पहुंचे ।
सोना बिखरा था सड़क पर
भरम टूटा जब उसके करीब पहुंचे।
कांच के टुकड़ों में सुनहरी किरण
चमकी थी जब चुगने गरीब पहुंचे।
हवा उड़ा कर ले गयी सपनो को
जब वो पूरा होने के करीब पहुंचे।

कौन कहता है बेवक्त मर जाऊँगा

काम बहुत है वक़्त से घर जाऊँगा।

घड़ी तो निश्चित है मौत की ,आनी है

काम कर के कुछ नाम कर जाऊँगा ।

बड़ी उमीदों से जला दिया हूँ

जलते जलते सुबह कर जाऊँगा।

राह का चलता मुसाफिर हूँ

मील का हर पत्थर पार कर जाऊँगा।