Tuesday, May 26, 2015

सच बोलकर सियासत नहीं होती
झूठ की कोई हैसियत नहीं  होती।
बहुत सारे समझौते करने पड़ते हैं
बिना ताक़त के हुक़ूमत नहीं होती।
चुकानी पड़ती है वो भी क़िस्तों  में
दर्द की कोई भी  कीमत नहीं होती।
हुस्न के जलवे यह आवारा हैं बहुत
उन्हें देख कर अब हैरत नहीं होती।
याद आई थी उनकी इस तरह से कि
अब भूलने  की  तबियत नहीं होती।
 यह पागल हवाएँ यह महकी खुशबु
मुहब्बत की किसे ज़रूरत नहीं होती।
सुलह तो हो  जाती है दुश्मन  से भी
तपते मौसम में मुहब्बत नहीं होती।
अपनी यह तस्वीर ले जाओ मुझ से
मुझसे अब औ र इबादत नहीं होती।
तारीफ सुनना अच्छा लगता है मगर
आलोचना कभी भी बर्दाश्त नहीं होती।
सज़दे करूँगा उसके दर पर ही मैं तो
उसके ज़िक्र बिना बरक़त नहीं होती।


Saturday, May 23, 2015

मिले भी नहीं  मुफ़्त में  बदनाम हो गए
बेवज़ह हम  रुसवाइयों के   नाम हो गए।
बुझ न सकी आग वो  पानी में लगी फिर
मौसम भी ख़िलाफ़ अब सरे आम हो गए।
इलाज़ के इन्तज़ार में जान ही निकल गई
जीते जी उजालों की हम तो शाम हो गए।
खुशबु कोई भी देर तलक़ टिक नहीं सकी
कोशिशें सबने बहुत की , नाकाम हो  गए।
दम तोड़ती रही आरज़ूएं  क़दम क़दम पर
होने को तो दुनिया के सारे ही काम हो गए।
वो गए तो साथ अपने मेरी पहचान ले गए
 हम तो तभी से ही इब्तिदाए ज़ाम हो गए।
दो वाक़यात में ही सिमटी हुई है ज़िंदगी ये  
कब पैदा  हुए और  कब हम तमाम हो गए।

Tuesday, May 19, 2015

किसने  कहा कि  इश्क़ खाना ख़राब है 
यह ज़िंदगी की  खुबसूरत  क़िताब है। 
ज़िंदा इसी के दम पर यह  क़ायनात है 
खुशबु को इसकी हर दिल ही  बेताब है।
रात  चांदनी में  नहाया  हुआ था चाँद 
आख़िर को पूरा हो  गया मेरा ख्वाब है। 
 आँखों की मस्ती का भी एहसास है मुझे 
उनमें भी मेरे इश्क़ का ही तो सैलाब है। 
ये अंग अंग  इश्क़िया ग़ज़ल  के शेर हैं 
सर से पांव तक वो ग़ज़ल की क़िताब है। 
अपनी तन्हाई  में भी महका रहता हूं मैं 
सांसों में उसके इश्क़ का घुलता गुलाब है। 
पैमाना मेरे सब्र का तो छलका ही रहता है 
ये इश्क़ भी न पूछो क्या ज़ालिम शराब है। 

Sunday, May 17, 2015

बचपन ख़रीद सके वह अमीर न मिला
सब कुछ लुटादे वह दानवीर न  मिला।
जिसे न चाहिए सोना चांदी या मकान
ऐसा भी कोई मौला या फ़क़ीर न मिला।
अपनी ही फ़क़ीरी में मस्त रहता हो जो
फ़िर ऐसा भी कोई संत क़बीर न मिला।
इश्क़ में भी पहले सी शिद्दत नहीं रही
अब रांझा  ढूंढता अपनी हीर न मिला।
ज़ख्म  ठीक कर दे जो बिना दवाई  के
ऐसा भी कोई  मसीहा या पीर न मिला।
जाने कौन से  शहर में रहता है  वह तो
प्यादे बहुत मिले कोई वज़ीर  न मिला। 
क़िस्मत को कोसते हुए तो सब ही  मिले 
लिखता कोई अपनी ही तक़दीर न मिला। 

Friday, May 15, 2015

ज़ाम सामने आते  ही वो सूफ़ी हो गए
होंठ  मगर उनके  तश्नालबी  हो गए।
तलब का भी कोई  पैमाना  नहीं होता
हक़ीक़त खुलते   ही अज़नबी  हो गए।
शिद्दत से जल रहे थे चराग़ जो कभी
हवा का रुख़ बदलते ही ज़ख़्मी हो गए।
इतनी पी ली फिर हिचकियां  लेने लगे
कुछ सवाल  मगर अब  ज़रूरी हो गए।
क़रार था ख़ुमार था न  जाने वो क्या था
पीकर के मगर वो एक तसल्ली हो गए।
अपने जिस हुनर पर नाज़ उन्हें बहुत था
अपने उसी हुनर से अब वो दुखी हो गए।
एक सिरा पकड़ा तभी  दूसरा उधड़ गया
दीवानगी  की  वो मिसाल ऐसी  हो गए।
उस शहर की हवा फिर  महक नही सकी
जिस शहर में रहने को वो थे राज़ी हो गए।

 

Monday, May 11, 2015

आँखों से पीने के हम इतने आदी हो गए
उम्र भर पी नहीं  फिर भी शराबी  हो गए।
गज़ब की शय थी बिंदास उन आँखों  में
बस उसी शय के  हम भी शैदाई  हो गए।
इतनी पी ली आँखों से हमने भी ऐ सनम
मुहब्बत के ज़ाम पर ज़ाम  ख़ाली हो गए।
हंसके घायल कर दिया उसने दिल को मेरे
ख़ुद सिमट कर हया से वो गुलाबी हो गए। 
इश्क़ में एक मिसाल ये भी क़ायम हो गई
पी तो हम रहे थे  मगर वो शराबी हो गए।
मैंने कहा तलब से मान जा अब बस कर
बोली करूं क्या मैं वो मय पुरानी हो गए।
उम्र से भी लम्बी हैं  ख़्वाहिशें ज़वानी की
अब  हम  उसकी रज़ा में ही  राज़ी हो गए।
इबादतों की तरह है प्यार मेरा भी सनम
तुम पूजा हो मेरी और हम पुजारी हो गए।

Monday, May 4, 2015

साक़िया न आज बंदिश पीने पर मेरे लगा
आज शराबे हुस्न में छलका नशा कुछ और है
छलक रहा है ज़ामे इश्क़ आज़ तेरी आँखों में
आज़ इन आँखों से पीने का मज़ा कुछ और है
ख़ूब से भी  ख़ूबतर है रुए -हयात मेरी आज़
आज़ तेरी पिलाने की भी तो अदा कुछ और है
लम्हा लम्हा बिखर रहा हूँ  आज़ तेरे पहलू में
आज़ मेरे सुरूर का अंदाज़ नया कुछ और है
आज़ मेरे साक़ी ने इठलाके दिया मुझे ज़ाम
आज़ दस्तूरे इश्क़  मस्ती ऐ ह्या कुछ और है  

Saturday, May 2, 2015

दिल एक हसरतें हज़ार क्या करते
देते न  ख़ुद को क़रार  क्या करते।
एक एक पल कटा हज़ार लम्हों में
ऐसे सिलसिले भी यार क्या करते।
हम रो दिए  वो चले गए  छोड़कर
हम अश्क़ों से तक़रार क्या करते।
लुट गए मुहब्बत के नाम पर हम
हँसते रहे हम  इज़हार क्या करते।
खबर सच थी वो अब आएंगे नहीं
मुतमइन थे  इन्तज़ार क्या करते।
तज़ुर्बा नहीं था ज़िन्दगी  का हमें
अज़नबी का एतबार क्या  करते।
एक दिल ही न संभल पाया हमसे
उसमे खुशियां  हज़ार क्या करते।
चेहरा वही रंगत वही आदतें वही
हवा ताज़ा खुशगवार क्या करते।
बनाने के लिए ही तोड़ी गयी  थी
ज़रा सी टेढ़ी थी दिवार क्या करते। 

Friday, May 1, 2015

वक़्त ने मुझको ऐसी सज़ा दी
सारी  खता  मेरी  ही बता  दी।
ख्यालों पर बन्दिशें  लगा  दी
ख़्वाहिशों पर कैंचियां चला दी।
बहुत ही  ऊँची  अना थी  मेरी
वक़्त ने मिट्टी में ही मिला दी।
हवा में उड़ने लगी मिट्टी  जब
उसे  बूंदों ने औक़ात  दिखा दी।
जितने भी  आईने टूट  चुके थे
उनकी भी मुझे वज़हें बता  दी।
हवा का रुख़ तो बदलना ही था
मैंने भी  अपनी रज़ा  जता  दी।
दर्द मिटे  फिर  ज़ख़्म भर गए
ऐसी  मुझे  कोई  दवा पिला दी।
ख़ुशबुओं  के ख़िताब  मिल गए
झुकने की भी अहमियत बता दी.