Wednesday, October 27, 2010

हर बात पर चश्मे तर किया नहीं करते

हर बात पर चश्मे तर किया नहीं करते
अपनी ही आग में कभी जला नहीं करते ।
आदत पुरानी है मेरी सवाल करने की
जवाब पर बस अब हम उलझा नहीं करते।
तेरा अज़ाब पाकर मुतमइन हूँ बहुत
इससे ज्यादा और तमन्ना नहीं करते।
टूट गये कच्चे घड़े सब मेरे सहन के
प्यासे लब फिर भी शिकवा नहीं करते।
किसके लिए दरवाजे पे उतरा चाँद था
धुंधली आँखों से ये देखा नहीं करते।
आंसू मेरे थे मुझ पर ही रोके चले गये
अपनों से परेशां कभी हुआ नहीं करते।
वह मेरा कुछ लगता भी है या नहीं
यह बात हम खुद से पूछा नहीं करते।
सफ़र में प्यार के आती हैं फिजां सब
नया आसमां देख के डरा नहीं करते।

एक अरसे तक तेरे लिए पत्थर तराशे थे

एक अरसे तक तेरे लिए पत्थर तराशे थे
दीवार छत तेरे फर्श ऐ घर तराशे थे।
तारीख साज़ बनकर के मैंने तो तेरे
साल महीने हफ्ते दिन हर तराशे थे।
बेहद मुश्किल काम था मैंने पर किया
उदासियों के तेरी मैंने पर तराशे थे।
फलक खाली देख के ख्याल आया
कहाँ गये दर्द जो मिलकर तराशे थे।
समुंदर भी सहमा सा है वह बहुत
किनारे जिसके तूने घर तराशे थे।
घर बदलते वक़्त तूने यह नहीं जाना
मैंने इस घर के भी पत्थर तराशे थे।
खुदा महफूज़ रखना ग़ज़ल को मेरी
संग तेरे जिसके मैंने अक्षर तराशे थे।

Wednesday, October 13, 2010

तहरीरो के नश्तर चलाना लाजिमी है क्या

तहरीरो के नश्तर चलाना लाजिमी है क्या
वायदे कर के निभाना लाजिमी है क्या।
दरीचा खुलने पर भी वह दिखता नहीं है
हर बार उधर ही देखना लाजिमी है क्या।
बदहवाश सा बना है हर वक़्त आदमी
बेवज़ह वफादारी निभाना लाजिमी है क्या।
सब तरह के लोग हैं बज्म में तेरी
अदब शऊर बरसेगा लाजिमी है क्या।
तेरे सवालों पर मैं चुप ही खड़ा रहा
मुजरिम मुझे ठहराना लाजिमी है क्या।
आंधियां तो आती हैं आती ही रहेंगी
हर बार पेड़ उखड़ना लाजिमी है क्या।
सियासी कठपुतली खेल खेलेगी ही
संग नाचते रहना लाजिमी है क्या।

महफ़िल में हर कोई निखरा लगता है

महफ़िल में हर कोई निखरा लगता है
बाद महफ़िल के वो बिखरा लगता है।
बेख्याली में चलता ही चला जाता है
होश आते ही वो थका सा लगता है।
इश्क करोगे तो दोस्त बिछड़ जायेंगे
किस्सा भले ही ये पुराना लगता है ।
इश्क के दरिया में कूद जानेके बाद
सिलसिला आज भी नया लगता है।
चेहरा बदलते ही आस्था बदल जाती है
जाने क्यों इंसान डरा डरा सा लगता है।
अँधेरे में बाहर जब शोर बहुत मचता है
घर में पहले वो उजाला करता लगता है।
सोने का सिक्का उसे गूंगा कर देता है
जो हर बात पर बहुत बोलता लगता है।

जितना जानता हूँ उतना बता सकता हूँ

जितना जानता हूँ उतना बता सकता हूँ
इससे ज्यादा और क्या बता सकता हूँ।
हाँ इन दिनों मैंने और भी कुछ जाना है
कुछ और भी मैं नया बता सकता हूँ।
तंग दिनों में कैसे माँ ने रोटी सेकी थी
बढती महंगाई में इतना बता सकता हूँ।
रात भर जगती होगी माँ बीमारी में मेरी
पत्नी माँ जब से बनी इतना बता सकता हूँ।
खुद गीले में रहके सुलाती मुझे सूखे में
कैसी थी वह ममता इतना बता सकता हूँ।
एक बार गिर गया तो संभल न पाऊंगा
भीड़ में पिस जाऊँगा बता सकता हूँ।
इबादत का कोई हिसाब नहीं होता कभी
सजदा करता हूँ बस इतना बता सकता हूँ।
नई शुरुआत करें नफरतें मिटा दे दिलों से
प्यार में ही सब कुछ है इतना बता सकता हूँ.

Friday, October 8, 2010

लोरियां सुनने का ख्याल आता नहीं.

लोरियां सुनने का ख्याल आता नहीं
किसी बात पर भी मलाल आता नहीं।
तन्हा रहने का रबत पड़ गया जबसे
रूमानियत का अब ख्याल आता नहीं।
शाम आई थी जमाने बाद हसीं बनकर
सज के रहने का अब कमाल आता नहीं।
बिछड़ गये काफिले से सब एक एक कर
महफ़िल सजाने का ख्याल आता नहीं।
खिंच गया जिस्म से जोशे सुकून सारा
ज़ख्म अब भी हरा है मलाल आता नहीं।
तकता रहता हूँ जमाने को खाली बैठ
बख्शीश मांगने का ख्याल आता नहीं।
हिज्र की रुत इतनी शोख न देखी कभी
दरवाज़ा बंद करने का ख्याल आता नहीं।