Friday, May 23, 2014

हम अपने गुमान में कब तक रहते
दूसरे के मक़ान  में कब तक रहते।
एक दिन ज़मीन पर आना ही  था
हम  आसमान में कब तक रहते।
दिल में नफरतों का समंदर लेकर
उनके दरमियान में कब तक रहते।
 रास न आई हवाओं  की सवारी
हम ऊँची उड़ान में कब तक रहते।
बहाव हवाओं का इतना तेज़ था
परदे  दरमियान में कब तक रहते।
कभी महकते थे  संग में फूलों की
ख़ुश्बु ए बागान में कब तक रहते।
दिल में भी  शोर शराबा बहुत था
तन्हां  बियाबान में कब तक रहते।
बहुत लिया सब्र का इम्तिहान हमारे
हर वक़्त इम्तिहान में कब तक रहते।
बच्चे का सा बिगड़ा दिल है अपना
किसी के एहसान में कब तक रहते। 

Friday, May 9, 2014

सदियां गुज़र गई उन्हे वार करते
किस किस पर हम एतबार करते।
खरा न उतरा कोई अपने वादे पर
इश्क़ का हम  कैसे इज़हार करते।
बस्ती वही है लोग भी सब वही हैं
दिल को हम कितना बेक़रार करते।
आदत कहूं लत कहूं य बेबसी इसे
उम्र गुज़र गई अपनी तक़रार करते।
तस्वीरों के दाग़ उभर आया करते हैं
आईने को हम ही क्यूँ दाग़दार करते।
सिखा  दिया ज़माने ने बेअसर रहना
वरना  दुनिया  हम ही गुलज़ार करते।
आँखों में इंतज़ार का मंज़र रह गया
ज़िंदगी को कितना हम दुशवार करते।
खाते हैं क़समें भी हम बहुत ही कम
वो कहते हैं यूं तो नहीं इज़हार करते।
मेरी भी सुन लेगा कभी तो ख़ुदा भी
तमन्नाओं को नहीं हम बीमार करते।