अपनी दीवानगी का इज़हार करना नहीं आया
जी भर कर किसी से प्यार करना नहीं आया
तबियत में तकल्लुफ रहा इतना ज्यादा
उम्र कट गई इसरार करना नहीं आया ।
दुआ अपनी भी कबूल हो जाती करते तो
खुद को किसी के हमवार करना नहीं आया।
पाँव रखते ही महकता था आंगन दिल का
क़दमों को कम रफ्तार करना नहीं आया ।
पल पल पर हमने लुटाई थी खुशबुएँ
अपने को बस बेकरार करना नहीं आया।
बच कर हम भी निकल सकते थे लेकिन
हमें खुलकर इन्कार करना नहीं आया।
आसमान जमीन पर उतर भी सकता था
पलट कर के कभी वार करना नहीं आया ।
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आसमान जमीन पर उतर भी सकता था
ReplyDeleteपलट कर के कभी वार करना नहीं आया ।
बहुत करीबी गज़ल. बहुत सुन्दर .. हर शेर लाजवाब