Saturday, February 6, 2010

दुश्मन से नहीं अपनों के सवालात से डर लगता है

रिश्तों से नहीं उनकी मुलाक़ात से डर लगता है।

वह जो पतली सी गली तन्हां चली जाती है

उसपे होती हुई खुराफात से डर लगता है।

बहुत वाकिफ हूँ मैं कमजोर चाहतों से तेरी

संग दुनिया बसाने के ख़यालात से डर लगता है।

मैं तेरा शहर छोडके चला भी जाता कहीं

तेरी तस्वीर लेजाने के ज़ज्बात से डर लगता है।

घर में आकर चुपके से ठहरेंहैं मुसाफिर

उनके बढ़ते होसलों के ख्यालात से डर लगता है।

बहुत तड़फ कर संजोई है जिंदगी हमने

टूटकर बिखरने के अहसासात से डर लगता है।

अभी तक तो हम सितमगरों से ही डरा करते थे

अब अपनी चैनो सुकून की कायनात से डर लगता है।

न शक्ल है न नाम न पहचान ही कोई उनकी

फुटपाथ पर जिंदगी बिताने के ख्यालात से डर लगता है।

चंद रोज़ा जिंदगी है यूं ही जाया न हो जाए

दिल में उठते ऐसे सवालात से डर लगता है।

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