Sunday, October 30, 2011

हादसा मुझ से बच कर निकल गया
ग़मज़दा लेकिन वो मुझे कर गया।
वक़्त ने गुजरना था गुज़र ही गया
जाते जाते भी वो कमाल कर गया।
वो भी कमाल था वक़्त का ही कि
मैं किसी के दिल में था उतर गया।
और ये भी कमाल है वक़्त का ही
कि मैं उस ही दिल से उतर गया।
वो रुतबा अपने बढ़ाने के वास्ते
अपना हाथ मेरे सर पर धर गया।
लौटा दी मैंने उसको उसकी अमानतें
मगर मुझे वो दर-ब-दर कर गया।
लब कहीं आरिज़ कहीं गेसू कहीं
मेरा दोस्त मुझे बे क़दर कर गया।


Tuesday, October 25, 2011

धरा पर उतर आये हैं रंगीन सितारे
दिल लुभा रहे हैं दियों के नज़ारे।
लक्ष्मी के आने की तैयारी में सब हैं
रंगोली सज रही है हर घर के द्वारे।
शुभ कामना हमारी सबको यही है
जीवन में खुशियाँ ही बरसे तुम्हारे।
दीपक का उजियारा घर घर जाये
हर घर में लक्ष्मी जी सदा पधारे।
फूल खिले रहे बगिया में सब के
काम संवरे रहे हर सांझ सकारे।

सकारे- सुबह

Monday, October 24, 2011

इस जमाने के चलन से डर लगता है
मुझे अपने ही जुनून से डर लगता है।
जिसको पकड़कर हम घूमते फिरते थे
अब मुझे उसी दामन से डर लगता है।
वो जो हाथों में तासीर थी मेरे कभी
अब मुझे अपने उस फ़न से डर लगता है।
पराई हो गई है किस्मत जब से यह
अब मुझे लफ्ज़ मिलन से डर लगता है।
मुफलिसी को मेरी जग ज़ाहिर न कर दे
मुझे अपने इस पैरहन से डर लगता है।
हादसे गली गली में होने लगे हैं इतने
अब तो मुझे इस तन से डर लगता है।
आईने के सामने जब भी खड़ा होता हूँ
मुझे अपने बुरे मन से डर लगता है।




Friday, October 21, 2011

हंसी को मुस्कराते लबों पर गरूर है
अश्कों को हसीन आँखों पर गरूर है।
मेहनत के जज़्बे से वाकिफ हूँ खूब मैं
मुझे मेरे मिट्टी सने पावों पर गरूर है।
चेहरा निखर जाता है हर पल हर घड़ी
बच्चे को अपने खिलोनों पर गरूर है।
ज़िद थी मुझे मंजिल चूम लेने की
अब मंज़िल को हौसलों पर गरूर है।
हंसी कभी रुदन ,चुभन कभी कसक
जिंदगी को अपनी चीज़ों पर गरूर है।

वो हर वक़्त नया इम्तिहान लेता है
मुझे उसकी नवाज़िशों पर गरूर है।
वो जो प्यार करते हैं दिल से मुझे
मुझे दोस्तों के दिलों पर गरूर है।









Tuesday, October 18, 2011

उसको अपनी तकदीर कैसे दे दूं ?
अपने ख्वाबों की हीर कैसे दे दूं ?
रुख़ बदल लेगी पास उसके जाके
उसे मैं अपनी तस्वीर कैसे दे दूं ?
क़द मेरे क़द से बड़ा है जिसका
उसको अपनी शमशीर कैसे दे दूं ?
लहजे में नरमाहट नहीं है जिसके
गुनगुनाने की उसे पीर कैसे दे दूं ?
हवा न चले जिस मौसम में कभी
खुशबु की उसे तहरीर कैसे दे दूं ?
जिसने चूमा नहीं मेरे नसीब को
उसे मैं दर्द की लकीर कैसे दे दूं ?
वफ़ा की जिसको कद्र ही नहीं है
उसे इश्क की जागीर कैसे दे दूं ?

Sunday, October 16, 2011

पंखुडियां ग़ज़ल की खिलती चली गई
खुशबू कतरा कतरा बिखरती चली गई।
धडकने दिल की थी या रूह की ख़ुशी
रफ्ता रफ्ता जिस्म में भरती चली गई।
अदा उनके कहने की भी लाजवाब थी
महबूब बनके ज़हन में बसती चली गई।
गुलबन्द थी पायजेब थी या थी चूड़ियाँ
खनकी ऐसे दिल में उतरती चली गई।
ज़र्रा ज़र्रा रोशन हो गया बज़्म का
चांदनी सी मानो बिखरती चली गई।
और इससे ज्यादा मैं ज़िक्र क्या करूं
मन में उथल पुथल मचती चली गई।
अब चिट्ठी पत्री मिले जमाने गुज़र गए
तुम्हे गाँव में आये जमाने गुज़र गये।
दूधिया रातों में सूनी छत पर बैठ कर
वो रूह छू लेने के जमाने गुज़र गये।
तालाब के किनारे की लम्बी गुफ्तगू
कुछ कहने सुनने के जमाने गुज़र गये।
किसकी नज़र लगी जाने मेरी उम्र को
वो आइना देखने के जमाने गुज़र गये।
आजाओ मेरी रुखसती बेहद करीब है
कहोगे वरना ,मिले जमाने गुज़र गये।

Friday, October 14, 2011

जो है उस से अब बेहतर चाहिए
दरिया सूख गया समंदर चाहिए।
इन रस्तों पर चलते उम्र गुजर गई
सफ़र को अब नई रहगुज़र चाहिए।
जो हुआ सो हुआ अब उसे भूल जा
अब दिल प्यार से तर-ब-तर चाहिए।
जिंदगी को तस्वीर बना कर रख दे
मुझे एक नया मुसव्विर चाहिए।
खिदमत माँ बाप की अच्छी नहीं लगती
उन्हें रहने के लिए अलग घर चाहिए।
हंसने पर कोई भी पाबंदी न हो जहाँ
ख्वाहिशों में भीगा वह शहर चाहिए।

मुसव्विर-कलाकार

Thursday, October 13, 2011

कुछ हौसला तो दिखाना होगा
पुरानी रवायतों को भुलाना होगा।
सिकुड़ती जा रही हैं सरहदें भी
खुद को तो अब बचाना होगा।
यह दुनिया तो तडपाएगी सदा
पर दिल कहीं तो लगाना होगा।
ज़र्रा छू सकता है आसमान को
सबको यह भी तो दिखाना होगा।
सूरज बनकर चमक गया अगर
फिर कदमों पे तेरे जमाना होगा।

Wednesday, October 12, 2011

जाने कैसे पीछे वह छुट गया था
इतनी सी बात पर बस रूठ गया था।
छेड़ना उसको बड़ी ही एहितयात से
उस साज़ का कोई तार टूट गया था।
कर्ज़ हवाओं का मैं हर रोज़ लेता हूँ
वर्ना जिस्म तो कबका छुट गया था।
तेरा कहना सही है मैं कुछ नहीं कहता
लफ्जों का खज़ाना मेरा लुट गया था।
चिकना हो गया था पानी की चोट से
इस पत्थर में दर्द ऐसे कुट गया था।
मेरा जनून मुबारक देता है मुझको
दम तो बचपन में ही घुट गया था।

Saturday, October 8, 2011

फूल कभी जख्मे-सर कर नहीं सकता
नन्हा कतरा समन्दर भर नहीं सकता।
जिगर तेरा आसमान से भी बड़ा है
बराबरी मैं उसकी कर नहीं सकता।
गलियाँ मेरे गाँव की बहुत ही तंग हैं
तेरा ख्याल उनमे ठहर नहीं सकता।
मेरा दर्द तो मेरा हासिले-हस्ती है
मेरी हद से कभी गुज़र नहीं सकता।
नशा इस दिल से तेरे फ़िराक का
इस जन्म में तो उतर नहीं सकता।
सुदामा दिली दोस्त रहा था उसका
इस बात से कृष्ण मुकर नहीं सकता।

हासिले-हस्ती --जीवन की उपलब्धि

Tuesday, October 4, 2011

झूठी शान दिखाने से क्या फायदा
दिन में दिए जलाने से क्या फायदा।
बदसूरत हो गया है अब चेहरा बहुत
नया शीशा मंगाने से क्या फायदा।
उम्र भर याद किया है इतना उन्हें
अब नज़रें चुराने से क्या फायदा।
हमारे किस्से भी लोग सुनायेंगे ही
ग़लत बातें बनाने से क्या फायदा।
बात पुरानी है एहसास तो जिंदा है
फिर रिश्ते निभाने से क्या फायदा।

बैठकर के जो सुन सके उसे ही सुना
हर किसी को सुनाने से क्या फायदा।
दुनिया वाले तुझको भला देंगे भी क्या
जख्म सबको दिखाने से क्या फायदा।

दीवानगी की भी कोई तो हद होगी
खुद को पागल बनाने से क्या फायदा।



Saturday, October 1, 2011

कुदरत का कमाल था कोई
या हुस्न बेमिसाल था कोई।
देखकर के निगाहें हैरान थी
हर दिल में सवाल था कोई।
उसकी उम्दा कारीगरी पर
शिद्दत से निहाल था कोई।
जो देखनहीं सका वो मंज़र
उस दिल में मलाल था कोई।