Sunday, December 27, 2015

उसे ज़िद थी दिल में ही मेरे उतर जाने की 
मुझे ज़िद थी अपनी सल्तनत बचाने की। 

उस के पास वज़ह थी मुझसे रूठ जाने की 
मेरे पास  भी वज़ह थी उस को मनाने की।

हसरतें तो दिल में  मेरे भी बहुत सारी थी
फ़ुर्सत नहीं थी लेकिन मुझे सर उठाने की। 

बस एक बार मैंने हंसकर देखा था उसको 
क़सम खाई थी उसने मेरे नाज़ उठाने की।

उसे मंज़ूर था  अपने ज़ख़्मियों से मिलना 
मुझको भी ज़िद थी अपना दर्द छिपाने की। 

दिल तू भूलने के फ़न में भी  तो माहिर है
कोई तो वज़ह  होगी उसके याद आने की। 

फिर तो बेख़ुदी में मैं ख़ुद को ही भूल गया
कुछ तो बात थी उन आँखों के पैमाने की। 

दिल का गुलाब मैंने जिसे चूम कर दिया 
दिल को  भी ज़िद थी  उसे आज़माने की। 
   


Saturday, December 26, 2015

कभी दिल हमारा तम ए ख़ाम था 
हमारी नज़र में मये गुल्फ़ाम  था। 
उनको शिकायत रही हमसे सदा  
उनकी नज़र में तो वो नाक़ाम था।   
गम नहीं था पास में जब दिल के 
ग़ोशे में  उसके  बड़ा  आराम था।
अब दर्द ने उस से दोस्ती कर ली 
अब करने को उसे बहुत काम था। 
तमाशे करने लगा  अब वो  इतने  
रफ्ता रफ्ता हो गया  बदनाम था।
मुद्दत हुई यार से रु ब रु हुए अब 
मेरा तो अब भी वो एहतिशाम था।  
  तम ए खाम --अनुभव हीन , कच्चा 
  मये गुल्फ़ाम - गुलाबी शय 
  ग़ोशे  - कोने 
  एहतिशाम - वैभव , शान 

                       -सत्येन्द्र गुप्ता 

Thursday, December 24, 2015

मैंने जब उनका काम कर दिया 
उन्होंने मुझे बदनाम कर दिया। 
इल्ज़ाम सर पर रख कर के मेरे 
चरचा मेरा सरे आम कर दिया। 
मैंने उनको अपना क्या बनाया 
जीना ही मेरा  हराम कर दिया। 
ग़ुरूर तोड़ के उसने दिल का मेरे  
उल्टा सारा  निज़ाम  कर दिया।
दिया भी अँधेरा ही  बाँट रहा था 
रोशनी को यूं बदनाम कर दिया। 
दिल की गहराइयां भी खामोश हैं
दिल मेरा तिश्ना काम कर दिया। 
शिद्दत से आज़माया उसने मुझे 
फिर  मुझ को नीलाम कर दिया। 
ज़िंदगी हम भी तो पीछे नहीं हटे
हमने हर दर्द तेरे नाम कर दिया।  
      तिश्ना काम - प्यासा 



Wednesday, December 23, 2015

हाथ ज़ख्मीं किये थे लकीरें मिटाने को 
मरहम लगाया फिर लकीरें बचाने को।

नसीब ने तो असर अपना दिखाना था 
दाग़ बाक़ी  छोड़ दिए दिल  दुखाने को। 

मुक़ाम कई आए हदें पार की मिल कर 
मिला न कोई ता उम्र साथ निभाने को।
  
वह अंदाज़ शोख़ वह तेवर वह बांकपन
तड़पे थे बहुत हम उसे  गले लगाने को।

अब तलक़ वह खूबसूरत पल नहीं आया 
सोचा था कभी घर को ज़न्नत बनाने को।

खता किसी की न थी वो खता मेरी ही थी 
मेरी ही ज़िद्द थी  तुमको आज़माने को ।

तुम्हारी खूबसूरती अब भी पहले जैसी है 
नज़र ही वह नही रही अब देख पाने को।

ज़िंदगी ठहरी है वहीँ,सब कुछ खो गया 
एहसास भी अब न रहे दिल बहलाने को।

कब तक़ किसी की आँखों में चुभते हम 
दिखलाई न तन्हाई अपनी  ज़माने को।

वक़्त ने भी कभी अपना साथ नहीं दिया 
मेह्नत तो बहुत की बुलंदियों पे जाने को। 



   

Monday, December 21, 2015

मेरे महबूब ही हमको  दर्द तमाम देते हैं 
हम इश्क़ का जब भी कभी नाम लेते हैं। 

बहुत खूबसूरत दिल था अपना भी कभी 
अब दिल से हम पत्थर का काम लेते हैं।

हवाओं ने भी चलन अपना  बदल लिया  
अब न ही आशिक़ी का वो सलाम लेते हैं। 

यादों में भी अब उनकी खुशबु नहीं आती 
हिचकी  हम अब भी  सुबहो शाम लेते हैं।

थक गई  राहे वफ़ा भी बता अब क्या करें 
लोग वफ़ाओं का भी  अब तो दाम लेते हैं। 

दुआओं की तो बहुत सारी शक़्लें हैं अब भी 
हम अब भी तो सर उनका इलज़ाम लेते हैं। 

मिज़ाज ही बदल गया उस शख्स का अब 
हम तो अब भी बस उनका ही नाम लेते हैं। 


Friday, December 11, 2015

अब किसी बात का ख़याल नहीं होता 
दिल चोट से अब  बेहाल  नहीं होता। 
ज़िंदगी से  समझौते  कर लिए इतने
अब ज़िंदगी से भी  सवाल नहीं होता। 
दिल के कोने में दर्द सिमटे  हैं  इतने 
ज़िक्र उन का  माहो साल नहीं होता।  
वफाओं का  सितम  अगर  देख लेते 
बेवफ़ाई पर  कभी मलाल नहीं होता। 
मिज़ाजे हुस्न अगर समझ आ जाता 
इश्क़ कभी जी का जंजाल नहीं होता। 
हाले दिल जाकर भी सुनाते किसे हम 
मुहब्बत के सौदे में दलाल नहीं होता। 
बहार तो दर पर  खड़ी है मेरे अब  भी 
तक़दीर का ही कोई क़माल नहीं होता। 

Wednesday, December 9, 2015

आंसुओं के मरहम से ज़ख्म नहीं भरते 
ज़र्द मौसम में  सुर्ख़ फूल  नहीं खिलते।

एक अरसा हो गया कस्तूरी को महकते 
वक़्त उतना ही हुआ मृग को भी तड़पते।

दिल ने बहुत चाहा  मिलता रहूँ तुम से 
भीड़ में ख्वाहिशों को रस्ते नहीं मिलते। 

उस लम्हे के गुज़रने  का इल्म न हुआ 
सदियां गुज़र गईं  उस पल के गुज़रते।

ज़िस्म उधड़ गया ताना बाना बुनने में 
वो कहते रहे  हम हद से नहीं गुज़रते। 

साक़ी से भी रब्त हमारा अब नहीं रहा
सिलसिला ए शौक़ अब हम नहीं रखते। 

तारे तो और भी उतर आते ज़मीन पर 
हर दरे दिल पर हम सज़दा नहीं करते।  







हम तुम्हारे अगर नहीं होते 
हम इतने पत्थर  नहीं होते। 
वक़्त अगर मोहलत दे देता 
हम इतने ख़ुदसर नहीं होते। 
दर्द के फूल भी नहीं खिलते 
इश्क़ के जो शज़र नहीं होते। 
उदासी मेरी फ़ितरत न होती 
फूल पत्थर खंज़र नहीं होते। 
पता नहीं हम किस दर होते 
अगर तेरे सू ए दर नहीं होते। 
अब यही सोच दिन कट रहे हैं 
दर्द के दिन मुक़र्रर नहीं होते। 
   ख़ुदसर - उद्दंड ,शज़र -पेड़ 
    सू ए दर -घर की ओर 

Friday, December 4, 2015

ज़िन्दगी मुझे एक सौग़ात दे दे 
फ़ुरसत के थोड़े से लम्हात दे दे। 

वक़्त नहीं है तेरे पास बिलकुल 
मुझको वक़्त ए मुलाक़ात दे दे।

दर्द को मेरे कहीं मह्फ़ूज़ कर दे 
ग़मों से मुझ को  निज़ात  दे दे।

गुलशन में सबा बन कर महकूं 
दिल को वह  राज़े हयात  दे दे। 

तेरे हिस्से का मिल गया तुझको 
मेरे हिस्से की भी क़ायनात दे दे।  

कहानी मेरी भी ये अमर हो जाए 
मुझ को तू वह आबे हयात दे दे। 

मैं भी तो बंदगी खुदा की कर लूं 
मुझे यह अदना सी बिसात दे दे।  

शान में उसके अता कर सकूँ मैं 
कुछ ऐसे मुझ को  नग्मात दे दे। 

मैं भी रह लूँ कुछ पल सुक़ून से 
लम्बी सी मुझको कोई रात दे दे। 

   राज़े  हयात - ज़िंदगी का राज़ 
   क़ायनात   - दुनिया , अदना -ज़रा सी 
  आबे हयात - ज़िंदगी का अमृत 

Friday, November 27, 2015

इबादतों का  नया सिलसिला हो गया 
संग जो भी तराशा वही  ख़ुदा हो गया। 

यक़ीनन तेरा अक़्स भी दिल में मेरे था 
इस बहाने उसका भी  सज़दा हो गया।

जब भी याद तुमने मुझे दिल से किया 
दिल का मौसम भी खुशनुमा हो गया। 

 निशानी तेरी संभाल कर रखी है मैंने 
लगाव उस से बहुत ही  गहरा हो गया। 

आदत  तुम को मेरी  जो ना पसन्द थी
दायरा अब उस का भी कम सा हो गया। 

इतना भी न था मेरी तन्हाई का फैलाव 
सारे जहाँ में ही जिसका चरचा  हो गया। 

पहले हंसी आती थी अपने हर  हाल पर 
अब ज़िंदगी का मुझको तजुरबा हो गया। 

मुझे भी अब एक नए गम की ज़रूरत है 
दर्द ही अब जीने का सिलसिला हो गया। 

ज़िंदगी अब तो इज़ाजत दे दे तू भी मुझे 
देख ले मैं कैसा था अब मैं क्या हो गया। 





Tuesday, November 24, 2015

आईने ने  मेरे बहुत खूबसूरत होने की गवाही दी थी 
कोई मुझको देखा करे मैंने किसी को हक़ ये न दिया। 
तर्क़े तअल्लुक़ भी यह दिल किसी से कर न सका था 
मेरे ग़ुरूर ने ही मुझको किसी आँख में रहने न दिया। 

रह रह कर के वो कई सिलसिले याद आ रहे हैं आज 
काश भूले से ही हम किसी महफ़िल में रह लिए होते।
आज़ वक़्त ही वक़्त है हम से काटे से भी नहीं कटता
कभी फुर्सत के लम्हों में उनको अपना कह लिए होते।   

Thursday, November 19, 2015

बचपन गया ज़वानी गई उम्र भी जाने को है 
ज़िंदगी अब भी  मेरी मुझको आज़माने को है। 

कांपते हैं पाँव और आँखे भी तो हैं सहमी हुई 
दिल को लगता है करिश्मा कोई हो जाने को है। 

मैं क्या और तू क्या सब वही तो हैं  कर रहे 
उसी सफ़र पर चल रहे क़यामत जहां आने को है। 

सिमट गई वक़्त की चादर में ही सारी ज़िंदगी 
ख्वाहिश आखिरी वक़्त में  भी सर उठाने को है। 

न आसमाँ किसी का है न ज़मीं किसी की हुई 
जो कमाया छोड़ वो भी खाली हाथ जाने  को है। 

क्यों मुझको बदनाम करता है ज़माना पूछिए 
क्यों हर कोई यहाँ मेरी ही दास्ताँ सुनाने को है। 

बड़े अदब के साथ उस को रहनुमा मैंने कहा
आज शख्स वही मुझको आइना दिखाने को है। 

सुन रहा हूँ अँधेरे में ये आहटें कैसी मैं आज  
कोई आया है आज या आज कोई जाने को है। 

जो मयक़दा परस्त हैं वो आएंगे इसी तरफ 
एक यही रास्ता है जो जाता मयख़ाने  को है। 

Monday, November 16, 2015

मुहब्बत में ज़हर ज़हर नहीं होता 
जो पी भी लें तो असर नहीं होता। 

जाने क्या तासीर है  मुहब्बत में 
इलज़ाम किसी के सर नहीं होता। 

इश्क़  ही तो ऐसी एक शै  है यारों 
नशा जिसका  क़मतर  नहीं होता।

महकती न आबो हवा ज़िंदगी की
इश्क़ का अगर  शज़र नहीं  होता। 

इश्क़ न होता इस ज़िंदगी से अगर 
मुझ में भी कोई  हुनर  नहीं होता। 

मीरा  नहीं पीती  ज़हर का प्याला  
 कृष्ण  से इश्क़  अगर नहीं होता। 

    शज़र --पेड़ 

Saturday, November 14, 2015

इश्क़ का रुतबा कम नहीं होता 
इश्क़ मज़बूर  बेदम नहीं होता। 

इश्क़ में अगर तपिश नहीं होती 
दिल का कोना  नम नहीं होता। 

हुस्न का सदक़ा भी कौन करता 
इश्क़ में ही अगर दम नहीं होता। 

दिलों में जुनूने इश्क़ नहीं  होता 
दीवानगी का आलम  नहीं होता। 

इश्क़ को अता है  ख़ुश्बू ही ऐसी 
रुसवाइयों का भी ग़म नहीं होता। 

क़यामत का इसमें नशा होता है 
रिश्तों में दैरो -हरम  नहीं होता।

आग का दरिया कहते हैं इसको 
इश्क़ न होता तो ग़म नहीं होता।  

  दैरो -हरम --मंदिर मस्ज़िद 

Saturday, November 7, 2015

ग़लती उनकी थी गुनहगार हम हुए 
उनके क़रीब रहके शर्मसार हम हुए। 

बस्ती में चारों तरफ़ चरचा यही था 
मशविरा उनका था शिकार हम हुए। 

साया भी मेरी सादगी से शर्मसार था  
आईने के सामने भी लाचार हम हुए।

सूरज ले गया उजाले सब समेट कर  
और सियाह रात के क़र्ज़दार हम हुए। 

भरोसा बहुत था अपने नाखुदा पे हमें 
किश्ती  में बैठते  ही बेक़रार हम हुए। 

ज़ख़्म उनके तो सूख  गए हवाओं में 
पर ग़म  में उन के आबशार हम हुए। 

बारिश में भीगने से डरते रहे हम सदा 
आंसुओं से भीग कर तार तार हम हुए। 

   आबशार - पानी पानी 

Sunday, November 1, 2015

ज़िंदगी तेरे लिए भी अज़नबी सी थी 
ज़िंदगी मेरे लिए भी  इक पहेली थी। 

मोहरे प्यादे वज़ीर की चालें तय थी 
बिसात इनकी पहले से ही बिछी थी। 

मेरे सीने से लगके सोया था मेरा दर्द 
महक़ इस में तेरी सांसो की बसी थी। 

उसीकी ज़ुस्तज़ु हमें उदास करती है  
जिसकी आरज़ू इस दिल में रहती थी। 

जिससे मिलने गए हम सादा दिल लिए 
उसने ही मेरे ज़ख्मों की तिज़ारत की थी। 

मिला वो आज तो हंसकर के यह बोला 
मैंने तो बस ज़रा सी चुटकी ही ली थी। 

चेहरा ही तो पहचान है आदमी की भी  
उसने बदलने की इसे  कोशिश की थी। 

कल बेहतर थे आज लाखों में शुमार हैं 
इस के लिए हमने बड़ी  मेहनत की थी। 

Friday, October 30, 2015

गीत लिखूं ग़ज़ल लिखूं कविता लिखूं 
तू  बता तेरी क़िस अदा पे क्या लिखूं। 

तेरी वफ़ाओं का मैं  क़ायल हूँ इतना 
जी नहीं चाहता तुझे मैं बेवफ़ा लिखूं । 

वह सितमगर है तू मेरे पर कुतर दिए 
कैसे बता तुझे फिर  मैं बावफ़ा लिखूं। 

आईने ने भी पूछा यह साया किसका है
एक रहज़न को  कैसे मैं रहनुमा लिखूं। 

मैं क्या तमाम शहर पूछेगा कुछ न कुछ 
कैसे मैं तेरे नाम दिल की दुनिया लिखूं। 

अगर मैं  रोना चाहूं  खुल के रो न सकूँ 
ज़ख्मे दिल की बता मैं क्या खता लिखूं। 

चिराग़े शाम ने अँधेरा तो मिटा ही दिया
मगर दिल किसका जला बता क्या लिखूं। 

जब पूरा ज़िक्र मिसरा ऐ ऊला में हो चुका 
अपने चौदहवीं का चाँद पे बता क्या लिखूं।  

   मिसरा  ऐ ऊला - पहली पंक्ति  




Wednesday, October 28, 2015

आप देखते रहिए  हमें फ़र्क़ नहीं पड़ता 
दिल भी अब  उस तरह नहीं  धड़कता। 

मालूम नहीं फूल कहाँ  छोड़ आये हम 
खुशबुओं का कोई सुराग़ नहीं मिलता। 

ज़िंदगी हमें बहुत ही छोटी सी मिलती है 
वादा उसका मौत से अच्छा नहीं लगता। 

वह अंदर से तो बड़ा ही खोखला निकला 
बिना तेल कभी कोई  दिया नहीं जलता। 

ग़ैर को खत लिखते रहे वो फ़र्ज़ी नाम से 
और कहते रहे  कोई ज़वाब नहीं मिलता। 

न जाने आज की रात भी किस तरह कटे 
मुफ़लिसी में चाँद भी अच्छा नहीं लगता। 



Saturday, October 17, 2015

एक दिल हसरतें हज़ार क्या करते 
देते नहीं खुद को क़रार क्या करते। 

एक एक पल कटा हज़ार लम्हों में 
यह मंहगी ज़िंदगी यार क्या करते। 

आंच देने लगी वह नरम बाहें हमें  
हम जलते हुए  अंगार क्या करते।

आंसुओं से ही धोने लगे चेहरा अब    
इतने हो गए थे बीमार क्या करते।  

लुट गए  मुहब्बत के नाम पर हम 
ऐसा  भी विसाले  यार क्या करते। 

एक दिल ही न संभल सका हम से
हम चाँद सा रु ए निगार क्या करते। 

तज़ुर्बा नहीं था ज़िंदगी का हम को 
हम अज़नबी का ऐतबार क्या करते।  

चेहरा वही रंगत वही आदतें भी वही 
हवा ही ताज़ा ख़ुशगवार क्या करते।

टेढ़ी हो गई  थी उसे तोड़ना ही पड़ा  
गिरने को थी वह दिवार क्या करते।  
विसाले यार -यार से मिलन 
रु ए निगार -यार का चेहरा 

Wednesday, October 14, 2015

परतें प्याज़ की छिलती चली गई 
आँखों में  पानी भरती  चली गई। 

दो घूँट शराब गले से क्या उतरी 
हक़ीक़त बयान करती चली गई। 

मुहब्बतों का बोझ ढ़ोते ढ़ोते ही  
घिस गई रिदा फटती चली गई। 

हसरत साथ रहने की उम्र भर वो  
लकीरें हाथ की मिटती चली गई। 

कब तक दिल भटकता दर ब दर 
क़यामत उस प गुज़रती चली गई।

ज़िंदगी छुट गई थी जिस गली में 
सदियाँ वहीँ  सिमटती  चली गई। 

दास्ताँ दुनिया को आज भी याद है 
नीम के पेड़ से लिपटती चली गई।

      रिदा - चादर   

Tuesday, October 13, 2015

वह दिल ही क्या जो बेताब नहीं होता 
हर अक़्से हक़ीक़त ख़्वाब  नहीं होता। 

अपनी  सफ़ाई में  मैं और क्या कहता 
कह दिया मुझसे अब हिसाब नहीं होता। 

दिल से अपने मिटा दी ख्वाहिशें सारी 
अब कोई भी सवालो जवाब नहीं होता। 

वो वलवले कहाँ वह जवानी किधर गई 
दिल हो या घर खाली शादाब नहीं होता।

कल तुम गए सर से क़यामत गुज़र गई 
शबे हिज़्र का ही  कोई हिसाब नहीं होता। 

अगर मैं ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी लेता 
क़सम ख़ुदा की मैं महरूमे आब न होता। 

मैक़दा तो खुल गया था रस्ते में घर के 
रोज़ मगर अब ज़श्ने- शराब नहीं होता। 

 शादाब-हरा भरा ,महरूमे आब -बिना चमक 

Monday, October 12, 2015

प्रिय दोस्तों ,
     आपके सहयोग एवं आशीर्वाद से गूगल सर्च पर 
ग़ज़लें बाइ सत्येन्द्र गुप्ता सर्च करंगे तो गूगल के 
पहले पेज पर मेरी ही वेबसाइट खुलेगी। 
इसके लिए मैं अपने सब followars का दिल से आभारी 
हूँ जिस के कारण मैं यहाँ तक पहुँच पाया हूँ। धन्यवाद। 
      सत्येन्द्र गुप्ता 

Wednesday, October 7, 2015

अपनी कहानी में ज़गह दे दो 
जीने की मुझको वज़ह दे दो। 

ज़िंदगी हर  पल  दरक़ रही है 
सुहानी सी नसीमे सुबह दे दो। 

यही है दुनिया यही है ज़न्नत
इश्क़  इबादत की  तरह दे दो। 

नींद आ जाए मुझ को चैन से
सुनहरे  ख्वाबों  की  तह दे दो।

बहुत बेवफा है यह ज़िंदगी भी 
इसको वफ़ाओं की वज़ह दे दो।

मेरे प्यादे  का घर  बंद हो गया  
मुझे खेलने को अपनी शह दे दो। 

इश्क़ ख़ुदा हो  जिस चौखट पर   
मुझे बंदगी करने की जगह दे दो। 


Tuesday, October 6, 2015

किसी शाम हमारा  इंतज़ार तो करते 
चाहतों में अपनी हमें शुमार तो करते।

चाँद ख़ुद ब ख़ुद उतर आता गोद में 
हसरत लिए उसका दीदार तो  करते। 

न करते प्यार अगर हमसे न करते 
हम पर मगर कुछ ऐतबार तो करते। 

रुख़ बदल देते सफर का हम भी तो 
कुछ दूर चलने का  क़रार तो करते।

दर्द जो  दिल की तहों में उतर गया 
उन हदों को ही  कभी पार तो करते। 

ख़ुश्बू ख़ुद ब खुद गले से लिपट जाती 
फूल को मेरे यार ज़रा प्यार तो करते। 

मुझको मेरी नज़र से देख लेते अगर 
सज़दा हुस्न का  बार बार तो  करते। 


  

Sunday, October 4, 2015

छत नीची हो तो सर उठाया नहीं जाता 
हकीकत को कभी झुठलाया नहीं जाता। 

अगर कहला देते हमें तो हम भी आ जाते  
बिना बुलाये हमसे कहीं जाया नहीं जाता। 

भेज दो यादों में तुम खुशबु संदली अपनी
मुहब्बत का बोझ तन्हा उठाया नहीं जाता। 

आँखों आँखों में बयां होते  हैं मज़मून जो 
खत में लिखकर के भिजवाया नहीं जाता। 

सारी मस्ती तुम्हारी आँखों की  ही तो है 
अब ज़ाम भी होठों से लगाया नहीं जाता। 

ठुकरा दिया दुनिया को खुद्दारी ने मेरी 
ख़्वाहिशों को  भी तो  रुलाया नहीं जाता। 

नए सवाल अजब अजब से न पूछ हमसे 
इतना भी किसी को आज़माया नहीं जाता। 

विसाले यार होगा या नहीं यह खबर नहीं 
तुमसे भी तो वायदा निभाया नहीं जाता। 

   विसाले यार - यार से मिलन 




Thursday, October 1, 2015

रख्ते सफर लेके चलना मुश्क़िल हो गया 
चलते चलते पाँव भी तो घायल हो गया। 

कच्ची उम्र में ही  सपने देख लिए इतने 
दिल ज़ल्दी ही इश्क़ के क़ाबिल हो गया। 

उठा दिया नक़ाबे हुस्न एकदम से उसने 
दिल देखते ही  उसका क़ायल  हो गया। 

इस तरह से दीवाना हुआ  दिल उस का 
पऊंचा थाम उनका लबे साहिल हो गया। 

बे दादे इश्क़ से नहीं डरता यह दिल अब 
दिल अब हर  तरह से क़ामिल हो गया। 
     रख्ते सफर - सफर का सामान 
     लबे साहिल -किनारे पर 
     बे दादे इश्क़ -इश्क़ की कठिनाइयां 
     क़ामिल -सफल ,पूर्ण 

Tuesday, September 29, 2015

ख़ुशी को किसी की नज़र लग गई 
या ग़मों  को मेरी ही उम्र लग गई। 

दिन दो चार मांगे थे जीने के लिए 
मौत को पहले ही  ख़बर लग गई।

बेहद ही उदास थे रात में लोग हम
आँखे तर थी फिर भी तो लग गई। 

यह पूछो वक़्त से शायद वह बताये 
आग़ तो लगनी थी किधर लग गई। 

दर्द छिपाकर रक्खा था दिल में तेरा 
इसकी भी दुनिया को खबर लग गई। 

ज़िन्दगी भी वफ़ा न कर सकी कभी 
मौत की उसको भी  नज़र लग गई। 

एकदम  चूम लिए होंठ  मैंने भी तेरे
मुझको भी तो हवाए शहर लग गई।  




  

Sunday, September 27, 2015

उनकी आँखों में मेरे इश्क़ का नूर था 
मेरी आँखों में भी गज़ब का सुरूर था। 

ख़ुदा को भी जाने यह क्या मंज़ूर था 
चटख गया वह हीरा जो मशहूर  था। 

भले ही मुफ़लिसी में पैदा हुआ था मैं 
दिल मगर  अपना यह  कोहिनूर था। 

वह जिनसे उम्मीदें लगाये बैठा था मैं  
शहर उनका अब  तो बहुत  ही दूर था। 

ज़ख्म ताज़े थे मरहम भी पास न था 
वक़्त का  भी शायद यही  दस्तूर था। 

मैक़दे की सफ़ में बैठा था मैं भी अब 
इश्क़ का सौदा था  मैं भी मज़बूर था। 

            सफ़ --पंक्ति 


Friday, September 25, 2015

एक बेवफ़ा को भूल से हम बावफ़ा समझे 
उसकी हर  ख़ता को  उसकी अदा समझे। 

हद से गुज़र गए ज़नूने इश्क़ में जब हम 
दर्द को ही फिर तो अपना आश्ना समझे। 

माना कि उसके इश्क़ में रहता हूँ  बावला 
मज़ाल क्या किसी की मुझे बावला समझे। 

दरवाज़ा अपने घर का खुला रखता हूँ सदा 
नहीं चाहता मुझे  कोई भी लापता समझे। 

इक़ शमां रह गई जलती, वह भी  उदास है 
दिल में कुछ और है जलने के सिवा समझे। 

बेतलब कुछ भी मिले मज़ा उतना आता नहीं 
फिर भी उसकी मर्ज़ी को उसकी रज़ा समझे। 

ज़िंदगी भी हैरान है  ये ढिठाई  मेरी देख कर 
मिट गए  उसके लिए उसे जाने क्या समझे।

नक़्श को अपने मुस्सविर पर भी क्या नाज़ है 
सब कुछ समझे उसे वह अपना ख़ुदा समझे।  

Sunday, September 20, 2015

तेरे  गेसू संवार  क्या करते 
हम ग़ैर से प्यार क्या करते।
वास्ता नहीं था उसे  मुझसे  
उसके नख़रे यार क्या करते।
बरसी घटा कहीं  और जाकर 
बारिश का इंतज़ार क्या करते। 
खता हो गई थी हमसे ही तो  
बार बार  इसरार क्या करते।  
सब्र नहीं था वहशते दिल को 
उतर गया ख़ुमार  क्या करते। 
फूल खिले थे  खुशबु नहीं थी 
ज़िंदगी  गुलज़ार क्या करते। 
दिल के रिश्ते बने दर्द के रिश्ते 
बदल गए क़िरदार क्या करते। 
शमां ने जलना था तमाम रात 
हम शबे ग़म गुज़ार क्या करते। 


Saturday, September 19, 2015

नए पते पर पुरानी चिठ्ठी मिली 
पता मेरा सब से ही पूछती मिली। 

मुद्दत बाद चिठ्ठी  को देख कर 
दिल को एक तसल्ली  सी मिली। 

वक़्त की रौंदी  हुई ज़मीं पर जैसे 
मुहब्बत  की  कोई  हवेली मिली।

याद आ गया  महका  हुआ  बाग़ 
हर तह में ख़ुश्बू वो लिपटी मिली। 

एक बार नहीं  हज़ार बार उसे पढ़ा 
ज़िंदगी उन पलों में सिमटी मिली। 

भुला दिया  बेरहम  वक़्त ने  जिसे 
खबर आज उस आशिक़ी की मिली। 




Saturday, September 12, 2015

दरक़ रही थी  दीवार  क्या करते 
अच्छे नहीं थे आसार क्या करते। 

ता उम्र मर मर कर ही जिए हम 
अब ख़ुद को दाग़दार क्या करते। 

नश्तर से भी  खरोंच  नहीं लगी 
इस ज़ुबान का  यार क्या  करते। 

हर हाल में रहने आदत है हमको 
क़यामत का इंतज़ार क्या करते। 

चेहरे धोखा देते हैं या ये क़िस्मत 
बेवज़ह की  तक़रार  क्या  करते। 

सुबहो शाम ज़ाम पीने में ही कटी 
इस तलब का भी यार क्या करते। 

सुक़ून चाहते  तो मिल भी जाता 
अब दिल को निखार क्या करते। 

Wednesday, September 9, 2015



जब ज़ाम होठों से  हमने लगाया 
क़सम ख़ुदा की ख़ुदा याद आया। 

जाने क्या सिफ़त है शराब में ऐसी  
क़तरा क़तरा ज़वाब इसका आया। 

वहशते दिल का आलम मत पूछो  
दरवाज़ा ऐ ज़न्नत भी खुला पाया। 

क्या ख़ूबसूरत शय है ये शराब भी 
फरिश्तों ने  इसे  होठों से लगाया।

आश्ना कोई मिले तो पूछें उस से 
शराब दर्दे दवा है  कि है सरमाया। 

रस्ते में  दैरो दरम के भी फिर तो  
मय परस्ती को मैक़दा खुलवाया। 

शुक्र गुज़ार हूँ साक़ी तेरा बहुत मैं  
तूने मेरे सनम से मुझे मिलवाया।  

    दैरो दरम - मंदिर मस्जिद 

Wednesday, September 2, 2015

कहावत है कि  नाम में क्या रखा है 
पर कुछ लोगों के लिए तो नाम में ही सब कुछ रखा है। 
उसने अपने बेटों के नाम  तूफ़ान और भूचाल सिंह रखा है 
बेटी का नाम सुनामी रखा है। 
उसे यक़ीन है कि तूफ़ान ,भूचाल सुनामी 
कभी आ भी गए तो उसे डर  नहीं लगेगा 
क्योंकि ये सब तो उसके हैं उसे नुक्सान नहीं पहुंचाएंगे। 
प्रकृति प्रेमी सूरज प्रकाश उनकी पत्नी संध्या ने 
अपने बेटों के नाम मानसून, बादल और बिटिया के 
 नाम वर्षा और रिमझिम रखा है।  उनका कहना है 
कि उन्हें सूखे का अहसास नहीं होता।
पर्वत सिंह ने अपनी बिटिया का नाम आइस बर्फ़  रखा है 
उन्हें जून के महीने में भी ठंड का अहसास बना रहता है। 
गरीबी से जूझने के लिए , समाज में अपना दर्ज़ा बनाने को 
गरीब दलित मिठाई लाल ने अपने बेटों के नाम 
मुलायम सिंह,राज नाथ सिंह ,कल्याण सिंह, बाल ठाकरे 
मन मोहन सिंह और बिटिया का  नाम जय ललिता रख दिया। 
मिठाई लाल को गर्व है कि सब के सब एक ही छत के नीचे 
बड़े ही मेल मिलाप से रहते हैं आपस में झगतड़े भी नहीं 
सब उसके कहने में हैं। 
यह उसकी संतुष्टि है या सनक यह तो पता नहीं 
पर वह अब मिठाई लाल के नाम से नहीं जाना जाता 
राज नेताओं के बाप के नाम से मशहूर है 
उनका घर भी राज नेताओं के नाम से जाना जाता है। 

Monday, August 31, 2015

एक अज़नबी को मैंने अपना कह दिया 
गज़ब उस पर यह उसे खुदा  कह दिया। 

यह मेरा दिल जिस से हवाएँ महकती हैं 
अपना दिल मैंने उसका हुआ कह दिया। 

मय पिए रक़ीब के साथ मिला मुझे शाम 
मैंने दूर से  ही उसे  अलविदा कह दिया।

बताओ दिल में  रहते हैं  किस तरह से 
कोई  सामने  आया मरहबा  कह दिया।   

पूछा कि शबे मह में क्या बुराई है बता 
उसने चाँद को  अहले  ज़फ़ा कह दिया। 

दिल लगा कर आ गया तन्हा बैठना मुझे 
मेरी  आदतों  को उस ने अदा कह दिया। 

मुद्दत से  मेरी रूह पर  बोझ यह रहा 
मैंने बहुत सोचा  मैंने क्या  कह दिया।

जाने कब बुलावा आये जाना पड़  जाए 
मैंने मौत को अपना आशना कह दिया। 

 मरहबा -स्वागतम , शबे मह -चांदनी रात 
      अहले ज़फ़ा -अत्याचारी ,आशना -प्रिय 



स्वच्छ विचारों की धरती पर भारत को स्वर्ग बनाएंगे 
ज़रूरत  पड़ने पर  अपना  हम लहू भी ज़रूर बहायेंगे।

बस्ती बस्ती में जाकर के घर घर शिक्षा बाँट कर हम 
नन्हें  नन्हे फूलों को शिक्षा की  खुशबु से महकायेंगे। 

यह तेरा है यह मेरा है  आपस में लड़ेंगे न कभी हम 
प्यार और भाईचारे की अलख हर दिल में जलाएंगे। 

तप कर कुंदन बनता है मेह्नत से उपवन खिलता है 
खेत जोतेंगे कड़ी धूप में  पसीने से  नगीने बनाएंगे।

न ही आांसू होंगे आँखों में  न दर्द  ही होंगे  चेहरों पर 
हम अपनी भारत माता को इतना ही सुन्दर बनाएंगे। 

Saturday, August 29, 2015

इश्क़ में गिले शिकवे अच्छे नहीं लगते 
हमें एहसान उनके  अच्छे  नहीं लगते। 

समंदर प्यासा प्यासा  देखा है जब से 
 दरिया शांत बहते अच्छे  नहीं लगते। 

उनकी अदाओं का शहर ही क़ायल है 
हम  हाल  पूछते  अच्छे  नहीं लगते। 

हवाओं  चिरागों  को  छोड़ दो  तन्हा 
चराग़े दिल बुझते अच्छे  नहीं लगते। 

तसल्लियों से  क़र्ज़  कैसे  चुकाओगे 
बार बार वादे करते अच्छे नहीं लगते। 

उदासियाँ नई अब महक रही हैं अंदर 
अब ज़ख़्म पुराने वे अच्छे नहीं लगते।  

लोभ रहा न मन में, न मोह रहा अब 
हम बेवफ़ाई करते अच्छे नहीं लगते। 

चलते चलते  पैर में ही मोच आ गई
लंगड़ाके चलते हुए अच्छे नहीं लगते। 


जब से जाना  ख़ुदा दिल में  बसता है 
अब पत्थर  पूजते  अच्छे नहीं लगते। 

चाँद चौदहवीं का दिल में ही रहता है 
सूरज को ये कहते अच्छे नहीं लगते। 

अब न आएगा वह ज़माना  लौटकर 
हरकतें वैसी करते अच्छे नहीं लगते। 



अब किसी बात का मलाल नहीं होता 
अब हाल भी अपना बेहाल नहीं होता। 

वक़्त के साथ चलने लगे जब से हम 
अब दिल में  कोई  बवाल नहीं होता।

ख़ंज़र चाहे कितने भी चला करें चले  
अब दिल अपना ये हलाल नहीं होता।

चर्चे पूरे चाँद के तो हर इक ज़ुबाँ पे  हैं 
चाँद चौदहवीं भी बेमिसाल नहीं होता।  

तेरा भी भरा है  ज़ाम मेरा  भी भरा है
बस मुझसे ही अब क़माल नहीं होता। 

ज़िंदगी भी साथ  छोड़ देगी एक दिन
अब उससे भी कोई सवाल नहीं होता। 

लौ लग गई अब जब  ख़ुदा से अपनी  
अब रख रखाव का ख़याल नहीं होता।