Monday, August 30, 2010

हद से ज्यादा बे शरम होती है शर्म

नहीं आती जब तलक नहीं आती है
आने को किसी बात पर भी आती है।
हद से ज्यादा बे शरम होती है शर्म
आती है तो सबके सामने ही आती है।
कितनी ही कोशिशें कर के देख ली
कब्ज़े में जिंदगी कभी नहीं आती है।
बुढ़ापे में दम होता नहीं निकलता है
हर सांस उखड़ी उखड़ी सी ही आती है।
महक जिस गम की ताउम्र रहा करती है
आँख में कतराए शबनम बनी आती है।
उम्र रूह की नहीं जिस्म की हुआ करती है
ख़ामोशी भी तो बात करते ही आती है।
दिन तो जैसे तैसे कर गुज़र ही जाता है
कोई शाम बड़ी ही हसीन बनी आती है।

Sunday, August 29, 2010

हर बात की तलब अब छोड़ चुके हैं

हर बात की तलब हम अब छोड़ चुके हैं
अकड़ कर रहने का फ़न अब छोड़ चुके हैं।
शरीक अपने गम में हम अब किसे करें
तन्हा रहने का चलन हम छोड़ चुके हैं।
जो दरिया था वही समंदर बन गया
अश्क बहने का हुनर अब छोड़ चुके हैं।
मुहब्बत में रतजगा ही जरूरी काम था
गम के दहाने पर उसे अब छोड़ चुके हैं।
कुछ वक़्त लगता है भूलने में किसी को
रफ्ता रफ्ता शहर हम अब छोड़ चुके हैं।
मुहब्बत पुकारती है तन्हाई में अब भी
बस रुक कर सुनने का फ़न छोड़ चुके हैं।
परवाह दिल को उनकी आज भी उतनी है
वो नाम मेरा रेत पर लिख छोड़ चुके हैं।

Saturday, August 28, 2010

अलग आइनों में चेहरा अलग नज़र नहीं आता

अलग आइनों में चेहरा अलग नज़र नहीं आता
सूनी आँखों में अह्सासे गम नज़र नहीं आता।
अतीत की तहें पलटने से वर्तमान बदलेगा कैसे
बीमारी में कभी चेहरे पर नूर नज़र नहीं आता ।
गुमनामी के अँधेरे में खो कर रह गया था कभी
अपने वजूद में सिमटा वह अब नज़र नहीं आता।
खुद्दारी उसका जेवर बन कर के रहा करती थी
बुढ़ापे में भी मोहताज वह नज़र नहीं आता ।
अपने दर्दे- गम से लिखता है ग़ज़ल के मिसरे
चेहरे पर फिर भी कोई दर्द नज़र नहीं आता।

हर चेहरे की हंसी बेमानी लगती है .

हर चेहरे की हंसी बेमानी लगती है
माथे की शिकन परेशानी लगती है।
हर वक़्त जिंदगी में उलझन हैं इतनी
लाचारी एक नई कहानी लगती है।
अपने वजूद में सिमटे हुए हैं सब
रिश्तेदारी भी अब वीरानी लगती है।
रोटी जुटाने की फ़िक्र ओ कोशिश में
इंसान की खो गई जवानी लगती है।
अमीरी चमकती है गरीबी सिसकती है
दुनिया यूँ ही चलती रूमानी लगती है।

वह तमाम घर में ख़ुशी बिखेर देती थी

वह तमाम घर में ख़ुशी बिखेर देती थी
नई तरतीब की हंसी बिखेर देती थी।
रेशमी भीगे बालों को लहरा कर के
नथुनों में महक सोंधी बिखेर देती थी।
सुबह सबेरे मेरी आँख नहीं खुलती थी
वह हंसके मुझ पे पानी बिखेर देती थी।
उसकी नर्म पलकों की ह्या सतरंगी
मेरे चेहरे पे चमक सी बिखेर देती थी।
कंधे से सरका कर के पल्लू होले से
मेरे वजूद में मस्ती बिखेर देती थी।
दिल में रूमानियत का ख्याल आने पर
नज़र में अपनी मर्ज़ी बिखेर देती थी।
इतरा कर चलती हुई छनछन करती
सहन में सारे मोती बिखेर देती थी।

Saturday, August 7, 2010

नियम तो बन गया लागू कैसे होगा .

नियम तो बन गया अब लागू कैसे होगा
बिगड़ा हुआ है जो वह साधू कैसे होगा ।
सोच कर यह भी तो परेशान हैं सब
जो सीधा है बहुत वह चालू कैसे होगा ।
उम्मीदों की जो बारात सजाये बैठे हैं
उनका बढ़ता गुस्सा काबू कैसे होगा ।
सन्नाटा चीख चीख कर परेशान है
लहरों का शोर आखिर काबू कैसे होगा ।
किताबों में ही पढ़ा है बच्चों ने अब तक
पता नहीं नाचता वह भालू कैसे होगा ।
संस्कारों में पला है जो शुरू से ही
बड़ा होकर वह चोर डाकू कैसे होगा ।
नसीहतें तो हर कोई दे देता है मगर
जीवन में सब कुछ लागू कैसे होगा ।

काश हम सब हिन्दुस्तानी हो जाएँ .

जात पात की बातें सारी बेमानी हो जाएँ
दिल से हम सब काश !बलिदानी हो जाएँ ।
नाम के आगे धर्म लिखें न जात कोई अपनी
हिन्दुस्तानी लिखकर सब हिन्दुस्तानी हो जाएँ ।
जो भ्रष्ट हैं बेईमान हैं उनको सजा दिला दें
महल और झोंपड़ी के नाते बेमानी हो जाएँ ।
नारी को सम्मान मिला हो आँख में रहे न आंसू
दुर्बल न रहकर सब झाँसी की रानी हो जाएँ ।
दोबारा लिखें इतिहास परीक्षा फिर से देकर
स्वर्णिम हिंदुस्तान बनाकर सब ज्ञानी हो जाएँ ।

Tuesday, August 3, 2010

वह एक दम से जब चलने लगता है.

वह एक दम से जब चलने लगता है
दिल तेजी से तब धडकने लगता है ।
तारीफ़ जब होती है मेरी बहुत
अपनों का दिल जलने लगता है ।
तूफ़ान बार बार आता है जब
वक़्त का जिगर हिलने लगता है ।
वीरान घर में शोर मचता है तो
दिल रह रह कर दहलने लगता है ।
बारिश होती नहीं जब तक नहीं होती
होते ही खतरे में घर लगने लगता है।

वक़्त लगता है फूल के खिल जाने में .

वक़्त लगता है फूल के खिल जाने में
वक़्त नहीं लगता टूटकर गिर जाने में ।
चाहकर भी उनसे मिल न सके कभी
फासला कुछ भी न था पास जाने में ।
उनसे मिलने की जरा सी ही कोशिश
तूफ़ान मचा गई सारे ज़माने में ।
दीवार रेत की थी दरकती ही चली गई
उम्र गुज़र गई थी उसको बनाने में ।
तूफ़ान कभी का आके चला गया था
हम लगे रहे रहे सबको मनाने में ।
भगदड़ सदा ही मचती रही यूँ ही
जिंदगी बीत गई रूठने मनाने में।

अपनी नियत पर डर लगने लगता है .

सहरा समंदर जब लगने लगता है
अपनी नियत से डर लगने लगता है।
नुक्सान का गम नहीं होता मुझको
मिली खुशियों से डर लगने लगता है।
दबी रह जाती है चिंगारी राख में तो
जरा सी हवा से डर लगने लगता है।
जो मेरे नज़दीक हैं मुझे जानते कम हैं
उनसे मिल के डर लगने लगता है।
तेरे संग कुछ दूर तलक चल तो लेता
तेरे रंग में ढलने से डर लगने लगता है।
इस हद तक बढ़ जाती है दीवानगी मेरी
कभी मुझे खुद से डर लगने लगता है।

Monday, August 2, 2010

.हम अपना गम कभी बेआबरू नहीं करते .

हम अपना गम कभी बेआबरू नहीं करते
उड़ते हुए परिंदे की जुस्तजू नहीं करते।
हमारा अपने रहने का तरीका अलग है
किसी से बात हम फ़ालतू नहीं करते ।
फूल की खुशबु हवा उड़ा कर ले जायेगी
इसलिए हम उसकी आरज़ू नहीं करते।
मेहमान कुछ दिन रहते हैं चले जाते हैं
उनसे रहने की हम गुफ्तगू नहीं करते।
नई बातों से ही फुरसत नहीं मिलती हमें
पुराना पैरहन हम कभी रफू नहीं करते।

चाँद सितारे फलक पर सजे जा रहे हैं.

चाँद सितारे फलक पर सजे जा रहे हैं
फूल संग कांटे चमन में खिले जा रहे हैं।
एक ही पेट से पैदा हुए हैं जो भाई भाई
वही अक्सर आपस में लड़े जा रहे हैं।
एक ही तहरीर है सबके पास मगर
फिर भी सब के सब भिड़े जा रहे हैं।
झगड़े में कट गई उम्र काम की थी जो
जिदों पर ही अपनी सब अड़े जा रहे हैं।
लाजिम है मौत ने एक दिन आना है
मौत आने से पहले सब मरे जा रहे हैं।
बरस दर बरस से यही तो हो रहा है
दरिया ही अब किनारे बने जा रहे हैं।