Friday, June 26, 2009

Tuesday, June 9, 2009

बहुत याद आती है

शहर जब उदासियों से घिरा होता है ,
गाँव की हर बात याद आती है ।
दरो दीवार ,चौखट ,वह आँगन ,फ़िर तो
घर की बहुत याद आती है ।

ए सी कमरे की बिजली गुल होने पर ,
मोड़ पर खडे, पीपल की छांव याद आती है ।
बारिश में, सड़को पर हुए, जल भराव को देख ,
गाँव में बहते नाले की ,बहुत याद आती है ।

बाज़ार और माल्स ,जब, हड़ताल पर होते हैं ,
मूली के परांठों और खिचडी की ,बहुत याद आती है ।
सामने पार्क में खेलते ,किसी बच्चे को गिरता देख ,
माँ के स्नेहमयी आँचल की ,बहुत याद आती है ।

Monday, June 8, 2009

मलाल

जब तक नहीं मिले थे ,
मलाल बहुत था ।
पहले ,
उनसे न मिलने का ,
मलाल बहुत था ।

वह मिले -इस तरह से कि ,
कोई बात करने - सुनने की ,
उनको फुरसत नहीं थी ।
फ़िर उनसे मिलकर ,
मिलने का ,
मलाल बहुत था ।

चले गये -
वह जल्दी में थे ।
जाने के बाद,
उनके जाने का
मलाल बहुत था ।

मलाल -मलाल ही बना रहा ,
कभी खत्म नहीं हुआ ।
हमें अपने मलाल पर ,
मलाल बहुत था ।

Friday, June 5, 2009

मधुमेह

मिठास की भी अजब कैफियत है यारो !
मिठास, जुबान में घुल जाए तो,
करिश्मा कर जाती है ।
व्यक्तित्त्व का, कोना कोना महका देती है ।
जहान को अपना बना लेती है ।
जिंदगी गुलज़ार बना जाती है ।

मिठास, खून में घुल जाए तो,
जी का जंजाल बन जाती है ।
मीठा ज़हर बनकर ,
जिंदगी ,
टुकडा टुकडा ,जीने को
मजबूर कर जाती है ,
बिमारियों की दलदल में ,
धकेल जाती है ।
सारी खुशियाँ छीनकर
जिंदगी वीरान कर जाती है ।



Wednesday, June 3, 2009

वह

सारी रात, जख्म
अपनों के , कुरेदता रहा,
सुबह होते ही, अकेला
कहीं निकल पडा ।
हम आंखों में दर्द के ,
समन्दर लिए रहे ,
बेवफा बादल ,
कहीं और बरस पडा।

पता नहीं, यहाँ वहाँ
क्या खोजता रहा?
गैरों से मिल्ल्त्दारी
निभाता रहा ।
उसे अपना घर
पसंद नहीं है शायद ,
पराई बस्ती में
ठिकाना ढूंढता रहा।

गरीब का मुकद्दर

कभी गरीब
प्याज ,गुड ,मिर्च से
चने -बाजरे की रोटी
खाता था ।

प्याज तो, कब का गायब
हो गया था,
उसकी थाली से !
गुड भी अब गायब
हो गया है ,
उसकी थाली से !

बाकी रह गयी- मिर्च ,
क्या यह भी कभी
गायब हो जायेगी ,
उसकी थाली से ?

शायद- नहीं ,
मिर्च, कभी गायब नही होगी ,
उसकी थाली से ,
क्योंकि, मिर्च खाने से,
आँख में आंसू आते हैं
और आंसू ही तो
गरीब का मुकद्दर है ।

Tuesday, June 2, 2009

अकेलापन

छुट्टियों में फुर्सत में बैठ
घुलमिलकर सुख -दुःख बांटने को,
इस बार होली में फ़िर से
एक नई उमंग जवान हुई ।
संग फाग खेलने को दिल
एक बार फ़िर से मचल उठा ,
विदेश से आने के लिए
फ़ोन पर बच्चों से थी बात हुई ।

तेजी से बदलते आधुनिक युग में
अब फुर्सत है किसको
वहां आकर घुलमिल सबके संग
रंगों से होली खेलने की ।
होली खेलने के तरीके भी अब
सरल हुए हैं -बच्चों ने कहा ,
परदेस में छुट्टी नहीं मिलती कोई
दिवाली की या होली खेलने की ।


मोबाइल इन्टरनेट ई-मेल की
अत्याधुनिक तकनीको ने ,
सात समुन्दर पार रहते हुए भी
दिलों की दूरियां घटा दी हैं।
इस वेब कैमरे को कंप्यूटर से
जोड़ लेना -मम्मी पापा ,
मिलजुलकर होली मनाएंगे
दिल को तस्सली दी है ।

पुरानी धुंधलाती यादों का मोह
एक बार फ़िर से उभरा था ,
होली के ही आते ही मन
अनेक भावो से बिखरा था ।
हमारे तन्हा दिल में
कमरे की नीरवता छाई थी,
उम्रों के बीच के रंगों का रंग ,
अलग ढंग से छितरा था ।

स्वयं को तस्सली देते हुए
मन का सुख -दुःख बांटने को ,
आनन फानन में वेब कैमरे से
कंप्यूटर को जोड़ दिया।
कैमरे से स्क्रीन पर उभर आई ,
बोलती गाती तस्वीरों ने ,
कमरे की नीरवता ,
दिल की तन्हाईयों को
पीछे छोड़ दिया ।

वक्त के साथ साथ जीने की
मान्यताएं भी कैसी बदली हैं ,
हजारों मील समुंदर पार की दूरियां ,
पल में कैसी सिमटी हैं ।
नाना -नानी ,दादा -दादी
हैप्पी होली से दिल भर आया था ।
नाती -पोतों को गले लगाने की
आतुरता फ़िर से पसरी है ।

सब मिलजुलकर नये अंदाज़ में
होली खेल रहे थे पर
ह्रदय में उम्र की तन्हाईयों का
था गुलाल बिखर रहा ।
ठहरी हुयी सुन्न भावनाओं का
सतरंगा इन्द्रधनुषी दर्द
सूनी आंखों से श्वेत जलधार सा
था टपटप बह रहा ।

मोतिया बिन्द

सारी उम्र समुंदर खंगालते रहे
कोई मोती न मिला
गहराइयां नापते रहे।
अब उम्र के इस पडाव में ,
मोती मिला तो कमबख्त -
इस अंदाज़ में मिला ,
अपनी चमक से
आँख को बेनूर कर गया ,
आँख में उतर कर ,
मोतिया बिन्द बन गया ।

Monday, June 1, 2009

आतंकवाद

कंधार विमान अपहरण ,
संसद पर हमला ,
जयपुर -दिल्ली के
सार्वजनिक स्थलों पर ,
एक के बाद एक होते धमाके !
सिलसिलेवार बम विस्फोट !
देश की वित्त नगरी मुंबई पर
बहुत बडा आतंकी हमला !
यह भारत जैसे महान देश की
बिडम्बना ही तो है की वह
मुट्ठी भर आतंकवादिओं का
मुकाबला नही क र सकता !
वाह्य शक्तियाँ
भारत की अखंडता ,
एकता को भंग करना चाहती हैं !
हमारी सुरक्षा एजेंसियां नकारा हो गयी हैं !
स्वार्थी राज नेता ही
आतंकियों को मौका दे रहे हैं !
भ्र्सत्ताचार उपर से नीचे तक पसरा है !
पैसे के दम पर सब कुछ सम्भव है !
पैसा देकर
पहचान पत्र मिल जाते हैं ,
वोटर लिस्ट में नाम चढ़ जाते हैं,
मकान किराए पर मिल जाते हैं ,
पैसा देकर, दोस्त मिल जाते हैं !
सीमाओं पर सघन पहरेदारी है।
पैसा देकर आतंकी सीमा पार क र जाते हैं !
भारी रिस्वतें देकर
हथियार उधर से इधर पहुंच जाते हैं !
करांची से चला जहाज बिना अनुमति के
भारतीय सीमा में घुस आता है।
इतनी बडी घटना , पलक झपकते ही तो
घटी नही होगी !
तय्यरियाँ पहले से चल रही होंगी!
भारी मात्रा में लेनदेन हुआ होगा !
किसी पर कोई शक हुआ भी होगा,
किसी बडे सलूक वाले राज नेता को
खरीदकर ,
शिफारिश लगवा दी गई होगी ,
केस रफादफा हो गया होगा !

आतंकी विस्फोटो के बाद
घटनास्थल की जांच ,
बडी तीव्रता से होती है !
लगने लगता है की केस अब सुलझा !
असलियत सब जानते हैं ,
जांच समितियां बिठाई जाती हैं,
समय व्यतीत किया जाता है।
कोई आतंकी ज़िंदा पकड़ भी लिया जाता है ,
राजनेताओं के सलूक ढूंढें जाते हैं !
भारी रिश्वते पहुंचाई जाती हैं,
आतंकी को फांसी नहीं होती !

आतंकवाद के खात्मे को लेकर
राजनेता बिल्कुल गंभीर नहीं हैं ।
राष्ट्र क्र प्रति उनकी सोच कुंठित हो गई है ,
राष्ट्रीय भावनाएं मर चुकी हैं ।
नेता कहते हैं -
आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता ।
सच यह है की
नेताओं का ही कोई मजहब नहीं होता ।
भ्रस्ताचार ,कुर्सी ,वोट उनका उद्येश्य है।
देश जितनी कठनाइयों का सामना कर रहा है ,
सभी के लिए ,राजनेता जिम्मेदार हैं ।
पहले अंग्रेजों का अत्याचार था ,
अब इन सफेदपोश नेताओं का अत्याचार है।
केवल शासक बदले हैं,
व्यवस्था तो बद से भी बदतर है ।
यह सच है की भ्रस्ताचार पर सख्ती से अंकुश लगने पर ही
आतंकवाद पर काबू पाया जा सकता है ।
नहीं तो भ्रस्ताचार का दंश झेलती जनता
आतंकवाद के खौफ तले ही
जीती रहेगी -मरती रहेगी ।
आज जनता एवं शहीदों की लाशों पर
राजनीती करनेवाले नेताओं की
आख़िर जरुरत ही क्या है ?
उन्हें तो मरीन ड्राइव पर लैंप पोस्ट पर
लटका देना चाहिए
और दुनिया को यह बता देना चाहिए की
भारत में अब आतंकवाद पनप नहीं सकता ,
आतंकवाद भारत की और कभी मुंह उठा नही सकता ।
यह काम जनता को ही अंजाम देना होगा,
तब ही तो ,
अपने प्यारे वतन को आज़ाद हवा में साँस लेने के
ख्वाब देखने वाले नौजवानों का हँसते हँसते ,
फांसी का फंदा पहन ,शहीद हो जाने वाले
शहीदों के प्रति हमारी
सच्ची श्रधान्जली होगी ।

गरीब उत्थान कार्यक्रम

गरीबों के उत्थान के लिए
मेट्रो शहर के आलीशान
पाँच सितारा होटल के
भव्य कांटिनेंटल हॉल में
गरीब उत्थान समिति की और से
एक विशाल गोष्ठी का आयोजन था।

शहर के प्रतिष्टित व्यक्ति
अभिजात्य वर्ग के प्रतिनिधि
कुछ बुद्धिजीवी बड़े अफसर
माननीय मंत्री जी की अध्यक्षता में
गरीबी से निबटने का हल ढूँढने के लिए
विभिन् योजनाओं पर
विचारों का आदान प्रदान एवं
विश्लेष्ण क्र रहे थे।

वह जो नही दिखाई दे रहा था
गरीबी का प्रतिनिधित्व करता
नजर नही आ रहा था
ढूंढें से भी नही मिल रहा था
वह था -एक गरीब ।

चपरासी एक बिचारा गरीब था
अपने कार्य में व्यस्त इधर उधर
दौड़ता हुआ सबकी द्धांत खा रहा था
गोष्ठी को मुह चिडाता सा लग रहा था।

गोष्ठी के बाद
शानदार डिनर का आयोजन था।
कीमती शराब ,कीमती व्यंजन
चिकन परोसे हुए थे
पैसा पानी की तरह
अमीरी पर लुटाया जा रहा था।
गरीब उत्थान कार्यक्रम का जश्न
मनाया जा रहा था ।

गोष्ठी समाप्त होने पर
मंत्री जी मुस्कराते हुए
सबका आभार प्रगट करते हुए
गाड़ी में बैठे ।
गाडी गेट से निकली ही थी
की झटका खाकर , रुक गयी ।

कुछ बच्चे कुरे करकट में से
प्लास्टिक बीनते हुए
यकायक गाड़ी के सामने आ गये ।
मंत्री जी की झुंझलाहट हद पार कर गयी ।
क्रोध भरा स्वर गूँज उठा -
क्या नानसेंस है -
कहाँ से चले आते हैं -
ये गरीब साले मरते भी नहीं ,
गरीब हैं ,गरीब बनकर ही रहेंगे ।

लग रहा था
कुछ देर पहले
गरीबी से निबटने के ,
गरीबी का हल ढूँढने के
विचारों का फोकस
सीमित होकर रह गया था ।
जिंदगी पर भारी पडती -गरीबी
गोष्ठी की कोरी बातें बनकर रह गयी थीं ।
गरीबो के उत्थान के लिए
उनके हालात से मुकाबला करने का
एक भी प्रयास
सार्थक होता नही लग रहा था।
गुलाब की महक
कांटो भरी चुभन से
आह भरती नज़र आ रही थी ।


Sunday, May 31, 2009

अंगडाई

एक

अभी तो उठा के हाथ ,
अंगडाई ले भी न पाये थे ,
जिस्म की गर्मी का तसव्वुर ,
निगाहों में छा गया ।
ओंठ जलने लगे ,
बदन छूने के ही ख्याल से ,
सारा आकाश पिघलकर
बाहों में आ गया ।

दो

अभी तो उठा के हाथ,
अंगड़ाई ही ली है,
ईमान डोल गया ।
जलवा देख लिया तो ,
सब्र बिखर जाएगा ।
अभी चाँद बादलो का खोल
ओढ़ तरसे है ,
निकलते ही कतरा कतरा
पिघल जाएगा।

वायदा

आज की बात पर
कल का वायदा क्या करे
आज खिली धूप है
कल खिले न खिले ।
जमाना बेताब है
करवटे बदलने के लिए
आज दिल मिले हैं
कल मिले न मिले ।

उम्र भर साथ रहने का
दम भरते थे
चले गये खबर नहीं
अब मिले न मिले ।
घर का सूना कोना
गले लिपटकर रो रहा
सब मुसाफिर हैं यहाँ
फिर मिले न मिले।

बतियाँ

हमारे सामने हमारी बतियाँ
तुम्हारे सामने तुम्हारी बतियाँ
कितनी मीठी लगती हैं
उनकी ऐसी खुशामदी बतियाँ ।

उनके सामने हमारी बतियाँ
हमारे सामने उनकी बतियाँ
कलेजा चीर देती हैं
उनकी ऐसी कटारी बतियां ।

कभी हैं शोला
कभी हैं शबनम
नहीं है मरहम उनकी बतियां
न वो हमारे न वो तुम्हारे
मतलबी हैं उनकी बतियां ।

Friday, May 29, 2009

में चीनी मिटटी का प्याला

मैं चीनी मिटटी का प्याला ,
तुम चाय मीठी मीठी सी
हर सुबह सवेरे अपने खालीपन को ,
तुमसे भरता हूँ।
तुमसे मिलने को उत्सुक हो सब ,
याद मुझे ही करते हैं । मेरी ठिठुरन को तुम अपनी
गर्मी से सिहरा जाती हो ।
कितना भी दूर रहूँ तुमसे
तुम्हारी खुशबू से ही महकता हूँ।
रिश्तों का मतलब क्या होता है ,
मैंने तुमसे जाना है ।
तुम्हारे स्पर्श के अनुमान से ,
मैं बौराया रहता हूँ ।

तुमसे मिलने की धुन में मैं ,
खनखन बजता रहता हूँ ।

डर एक लगा रहता है मुझको ,
टूट न जाऊं गिरकर मैं ।
फ़िर भी रूप बदलकर मैं ,
तुम्हे गले लगाये रहता हूँ ।
मेरे दायरे में क़ैद हुई तुम ,
छलकी छलकी जाती हो ।
जितना भी तुमसे भरता हूँ मैं ,
उतना ही रिक्त हुआ रहता हूँ।

Wednesday, May 27, 2009

खिलौना कार

हर सुबह अखबार में सब
अपनी अपनी पसंद के कोलम
सबसे पहले देखते हैं
कोई स्पोर्ट्स कोलम
कोई शेयर मार्केट न्यूज़
कोई फ्रंट न्यूज़
कोई विज्ञापन

डेढ़ वर्ष का नन्हा सा बालक
बडी उत्सुकता से अखबार खोलता है
कोई और पहले पढने लगे तो रोता है
अखबार लेता है खोलता है
विज्ञापन में छपी कारो को
देखकर बहुत खुश होता है
अपनी मम्मी की कर जैसी स्विफ्ट कार
छपी देखकर कहता है मम्मी तार

पापा जैसी होंडासिटी देखकर
कहता है पापा तार
अपने नाना की जैन जैसी छपी कार
देखकर कहता है नानू तार
बाकी सब छपी हुईं कारे
उसके लिए हैं अन्त्ल तार
कारो की तस्वीरे देखकर
उसके मासूम चेहरे पर
अनोखी चमक आ जाती है
वह अपनी खिलोनो वाली कारो को
उठाकर लाता है
जितनी कारे समाचारपत्र में
छपी हुई देखता है
उतनी ही खिलौना कारो को
एक एक kar लाइन में लगाकर खुश होता है
जैसे उन्हें पार्किंग में पार्क क्र रहा हो
उसके चेहरे की खुशी
उसकी आँखों की चमक
देखने लायक होती है
जब नन्ही हथेलियों से
तालियाँ बजाकर वह खुश होता है
जैसे उसे कोई अकूत खजाना मिल गया हो

असलियत

वह जो उचाईयों पर उचाईयां चढ़ता रहा
ख़ुद को बेहतरीन समझने का गम उसे खा गया
बदलते वक्त ने असलियत का आईना दिखाया तो
एक अदना सा इंसान बनकर रह गया

वह ख़ुद को मुकम्मल से कम नही समझता था
सच के करीब होकर अधूरा सिमटकर रह गया
अपने होने को न होने से अलगाता हुआ
कमजोर इंसान बनकर रह गया

अब तो ऐसे जैसे किसी तपते पहाड़ पर यकायक
घने कुहरे में हल्की बूंदें बरस रही
हर तमन्ना हर इच्छा बुलंदियों को छूती हुई
कभी आग थी अब पानी पानी हो रही

Saturday, May 23, 2009

में क्या करता हूँ

आईने ने तो बहुत खूबसूरत
लगने की गवाही दी थी
कोई मुझे देखा करे
मैंने किसीको यह हक न दिया

वक्त ने भी मेरी तनहाइयाँ
पहचान ली थी
मेंरे गरूर ने
मुझे किसी आँख में
रहने न दिया

रह रह कर कईं सिलसिले
याद आ रहे हैं आज
काश ख़ुद को भूले
किसी महफिल में
राह लिए होते

आज वक्त ही वक्त है
काटे से नहीं कट ता
कभी मोहल्लत मिल्ली होती
अपनों से गले मिल लिए होते

हुनर

उनकी बातों में
न जाने क्या बात है
सबको अपना बनने का
हुन्नर आता है

अजब फनकार हैं
आँखें उनकी
पत्थरों में आइयेना
तलाशने का हुन्नर आता है

धुप में सूखती
उनकी जुल्फों को देख
मौसम को भी अपने में
बदलाव नज़र आता है

अजाब रोमानी है
उनकी जुदाई की शेह भी
की जिगर का दर्द भी
गुलज़ार नज़र आता है