Saturday, June 12, 2010

जनाब के लिए

कुछ शक्लें बनी हैं बस ख्वाब के लिए
जैसे कहानियाँ बनी हैं किताब के लिए।
बैचैनी भाग रही है इंसान के पीछे
मसीहा नहीं है कोई दिले बेताब के लिए।
पसीना बहाकर खेत में गलाई थी हड्डियाँ
अब लड़ रहा है सूखे से हिसाब के लिए ।
तलाश रहा है झुर्रियों में क्या पता नहीं
उम्र कम पड़ गई है हर जबाब के लिए।
किसी को रोते देखकर हंसना नहीं अच्छा
न जाने कौन सा आंसूँ बना है तेजाब के लिए।
मिटटी खाकर बच्चा जीएगा कब तलक
पेट भरने को रोटी चाहिए जनाब के लिए ।

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