दरक़ रही थी दीवार क्या करते
अच्छे नहीं थे आसार क्या करते।
ता उम्र मर मर कर ही जिए हम
अब ख़ुद को दाग़दार क्या करते।
नश्तर से भी खरोंच नहीं लगी
इस ज़ुबान का यार क्या करते।
हर हाल में रहने आदत है हमको
क़यामत का इंतज़ार क्या करते।
चेहरे धोखा देते हैं या ये क़िस्मत
बेवज़ह की तक़रार क्या करते।
सुबहो शाम ज़ाम पीने में ही कटी
इस तलब का भी यार क्या करते।
सुक़ून चाहते तो मिल भी जाता
अब दिल को निखार क्या करते।
अच्छे नहीं थे आसार क्या करते।
ता उम्र मर मर कर ही जिए हम
अब ख़ुद को दाग़दार क्या करते।
नश्तर से भी खरोंच नहीं लगी
इस ज़ुबान का यार क्या करते।
हर हाल में रहने आदत है हमको
क़यामत का इंतज़ार क्या करते।
चेहरे धोखा देते हैं या ये क़िस्मत
बेवज़ह की तक़रार क्या करते।
सुबहो शाम ज़ाम पीने में ही कटी
इस तलब का भी यार क्या करते।
सुक़ून चाहते तो मिल भी जाता
अब दिल को निखार क्या करते।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-09-2015) को "हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-2098) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हिन्दी दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
dhanywaad
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