वह दिल ही क्या जो बेताब नहीं होता
हर अक़्से हक़ीक़त ख़्वाब नहीं होता।
अपनी सफ़ाई में मैं और क्या कहता
कह दिया मुझसे अब हिसाब नहीं होता।
दिल से अपने मिटा दी ख्वाहिशें सारी
अब कोई भी सवालो जवाब नहीं होता।
वो वलवले कहाँ वह जवानी किधर गई
दिल हो या घर खाली शादाब नहीं होता।
कल तुम गए सर से क़यामत गुज़र गई
शबे हिज़्र का ही कोई हिसाब नहीं होता।
अगर मैं ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी लेता
क़सम ख़ुदा की मैं महरूमे आब न होता।
मैक़दा तो खुल गया था रस्ते में घर के
रोज़ मगर अब ज़श्ने- शराब नहीं होता।
शादाब-हरा भरा ,महरूमे आब -बिना चमक
हर अक़्से हक़ीक़त ख़्वाब नहीं होता।
अपनी सफ़ाई में मैं और क्या कहता
कह दिया मुझसे अब हिसाब नहीं होता।
दिल से अपने मिटा दी ख्वाहिशें सारी
अब कोई भी सवालो जवाब नहीं होता।
वो वलवले कहाँ वह जवानी किधर गई
दिल हो या घर खाली शादाब नहीं होता।
कल तुम गए सर से क़यामत गुज़र गई
शबे हिज़्र का ही कोई हिसाब नहीं होता।
अगर मैं ज़िंदगी अपनी मर्ज़ी से जी लेता
क़सम ख़ुदा की मैं महरूमे आब न होता।
मैक़दा तो खुल गया था रस्ते में घर के
रोज़ मगर अब ज़श्ने- शराब नहीं होता।
शादाब-हरा भरा ,महरूमे आब -बिना चमक
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