कुछ नहीं था पास मेरे निशानी क्या देता
गवाह नशे में धुत था गवाही क्या देता।
ज़मीर बिक गया चंद सिक्कों में उसका
वह हक़ में फ़ैसला ए बेगुनाही क्या देता।
दर्द गुलामी का भी नहीं झेला हो जिसने
क़ैद में बंद परिंदे को आज़ादी क्या देता।
अपनी ज़िम्मेदारी का अहसास नहीं जिसे
उसे मैं अपने दिल की पिटारी क्या देता।
डूबा हुआ था क़र्ज़ में सर से पाँव तक वह
उसे मैं अपनी चाहत की उधारी क्या देता।
ज़रा सी देर को सूरज उतरा था आँगन में
मैं धूप तेरी मेहमान नवाज़ी भी क्या देता।
नींद भी बेदारी भी ख्वाब भी और आंसू भी
इससे भी ज़्यादा वह दुनियदारी क्या देता।
मैक़दे की पहली ही सफ़ में बैठा था वह
नज़रें चुरा रहा था, मैं शाबासी क्या देता।
बेदारी - जागना , सफ़ - पंक्ति
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