Friday, May 20, 2011

आज दूरियां सिमटना चाह रही थी
आंधी बनकर लिपटना चाह रही थी।
ख्वाहिशों का कोई भी अंत नहीं था
हसरतें उड़ान भरना चाह रही थी।
कटने का उसे डर नहीं था जरा भी
पतंग ऊँची उड़ना चाह रही थी।
राज़ कोई न जान सका आज तक
मीरा क्यों जोगन बनना चाह रही थी।
पहाड़ों पर बर्फ पिघली जा रही थी
खुशबु जाफरानी बनना चाह रही थी।
लोग बड़े प्यार से सुन रहे थे सब
ग़ज़ल लब से निकलना चाह रही थी।
कौन है जिसने बुझा डाले थे चिराग
रात और आगे बढ़ना चाह रही थी।

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