सिलसिला प्यार का मिलता चला गया
जिस्म ज़ाफ़रान सा महकता चला गया।
गेसू उस शोख ने अपने लहराए जैसे ही
इन्द्रधनुष जमीन पर उतरता चला गया।
तितलियाँ सब उड़ने को बैचैन हो उठी
फिजाओं में शहद घुलता चला गया।
इस अदा से बेनकाब हुआ वो लाजवाब
खुशियों में रंग नया भरता चला गया।
मन में उमंगों की मस्ती सी छा गयी
जाम पर जाम खुद भरता चला गया।
आँख मिलने की ही जैसे बस देर थी
सुखन को लहजा मिलता चला गया।
सुखन- साहित्य
Monday, May 2, 2011
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