उसके भीतर जो जहाँ था वीरान था
इस बात से मगर वह अनजान था।
नशा नहीं मस्ती नहीं न थी ख्वाहिशें
जाने किस किस्म का सारा सामान था।
राहगीरों को रोकता था छांह देने को
कभी उस शज़र को खुद पे गुमान था।
खंडहर बनके इतरा रहा है आज भी
कभी मकान जो बड़ा आलीशान था।
धूप कहीं छांह सर्दी गर्मी कहीं बारिश
दिखने में तो वही एक आसमान था।
टुकड़ों में सिमटकर रह गया है अब
कितना बड़ा वह एक खानदान था।
चेहरा बोलता था बात कहने के बाद
कभी अपने सलीके पर उसे गुमान था।
छिपाकर रखा था उसने सबसे मगर
उसके भीतर जो एक बड़ा आसमान था।
Monday, April 25, 2011
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