दिल में जब से दर्द की शिद्दत नहीं रही
दर्द को दर्द कहने की हिम्मत नहीं रही।
इसी को ओढ़ लेंगे जो नीचे बिछी थी
हम को आसमां की जरूरत नहीं रही।
वो आयें न आयें अब फर्क नहीं पड़ता
दिल के कोने में भी वहशत नहीं रही।
तुम ही थे जिस को ख़ुदा से माँगा था
तुमसे भी मिलने की फुरसत नहीं रही।
शबाब का मौसम कभी का गुज़र गया
अब रोशनी को हमारी आदत नहीं रही।
शिकायत जमाने से भला क्या करें अब
फ़िज़ा में वो शौक वो निस्बत नहीं रही।
Monday, March 19, 2012
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