पसंद नहीं थी खुशबु उसको गुलाब की
उसे अच्छी लगती थी खुशबु शराब की।
शिदद्ते दर्द ने पागल कर दिया इतना
कि आदत बदल गई फिर तो ज़नाब की।
लहरें उठती रही गिरती रही समंदर में
दास्ताने दर्द भी क्या सुनाते सैलाब की।
आँख मिलाना खुद से मुश्क़िल हो गया
ज़रूरत पड़ने लगी उसे अब हिज़ाब की।
उड़ा के अर्श में पटक देती है ज़मीन पर
हक़ीक़त कुछ ऐसी ही होती है शराब की।
उसके चेहरे को अपना मैं मान बैठा था
सूरत जिसने पाई थी मेरे हीअहबाब की।
इश्क़ का सबक़ तो ख़ुद ही याद हो गया
ज़रूरत नहीं पड़ी कभी किसी क़िताब की।
उसे अच्छी लगती थी खुशबु शराब की।
शिदद्ते दर्द ने पागल कर दिया इतना
कि आदत बदल गई फिर तो ज़नाब की।
लहरें उठती रही गिरती रही समंदर में
दास्ताने दर्द भी क्या सुनाते सैलाब की।
आँख मिलाना खुद से मुश्क़िल हो गया
ज़रूरत पड़ने लगी उसे अब हिज़ाब की।
उड़ा के अर्श में पटक देती है ज़मीन पर
हक़ीक़त कुछ ऐसी ही होती है शराब की।
उसके चेहरे को अपना मैं मान बैठा था
सूरत जिसने पाई थी मेरे हीअहबाब की।
इश्क़ का सबक़ तो ख़ुद ही याद हो गया
ज़रूरत नहीं पड़ी कभी किसी क़िताब की।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18 - 06 - 2015 को चर्चा मंच पर नंगी क्या नहाएगी और क्या निचोड़ेगी { चर्चा - 2010 } पर दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
शानदार ग़ज़ल लिखी है आपने.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
http://iwillrocknow.blogspot.in/
बहुत उम्दा शेर..बढ़िया गजल
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteसुन्दर ग़ज़ल , बेहतरीन मन को छूने बाली
ReplyDeleteकभी इधर भी पधारें
sundar gajal
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