Wednesday, June 10, 2015

ज़मीन खा गई या आसमान निगल गया
या वो भी अपना काम करके निकल गया।

उसकी तलब का ही तो अंदाज़ा न हो सका
वो मैक़दे के पास से बिन पिए निकल गया।

अब न लौट सकेगा खुशबुओं का वो मौसम
हवा का रुख़ भी  तो जैसे वो अब बदल गया।

पा तो गया था मैं भी उसके होने का सुराग
क़समें खाई  उसने और मैं भी बहल गया।

मैं पूजता रहा जिसे वह पत्थर का  बुत था
निगाहें मिलते ही मगर वो भी पिघल गया।

सितारे गिनता रहा उस अँधेरी शब में मैं तो
और  चाँद के साथ वो कहीं दूर निकल गया।

दुआ तो लग जाती मुझे भी किसी की ज़रूर
क्या करें मुक़द्दर  ही हाथ से  फिसल गया। 

4 comments:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11 - 06 - 2015 को चर्चा मंच पर बरसों मेघा { चर्चा - 2003 } में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. बहुत शानदार पंक्तियाँ |
    "क्या करें मुकद्दर ही हाथ से फिसल गया "

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  3. बहुत सुंदर गजल....फांट साइज बढ़ा लीजि‍ए..बहुत छोटे हैं।

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  4. हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार ,बधाई. कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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