हर बात की रहती कहाँ सबको खबर है
हर शख्श की अपनी अपनी रहगुज़र है।
किसी को मेरी बात का पता नहीं चले
दिन रात आदमी को यही रहती फिकर है।
दीखता है कम डाक्टर आँख का है मगर
मरीज़ ठीक हो रहे हैं उनका मुकद्दर है।
पहचान नहीं पाया उसे कोई भी कभी
इसीलिए वो खुद से भी रहता बेखबर है।
महफूज़ कोई भी नहीं है अब शहर में
दौड़ धूप दुनिया में बड़ी इस क़दर है।
Monday, March 7, 2011
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