नाम बहुत सुना ख़ुदा का,ख़ुदा नहीं मिला
नक्शे क़दम मिलते रहे,रस्ता नहीं मिला।
हम ज़िन्दगी की मय को पीने में लगे रहे
आबे-हयात का ही कोई कतरा नहीं मिला।
यूं तो संग मील के हजारों, हमें तय करने थे
नजदीकियों को ही कोई जज़्बा नहीं मिला।
शबे-फ़िराक़ के बाद ,उनसे मुलाक़ात तो हुई
पहले सा कमबख्त कोई लम्हा नहीं मिला।
शबनमी ताज़गी का फिर एहसास न हुआ
बचपन किधर गया कभी पता नहीं मिला।
यकीनन लहजा बातों का उनकी ख़ूबसूरत था
दरमियाँ गुफ़्तगू का ही सिलसिला नहीं मिला।
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हम ज़िन्दगी की मय को पीने में लगे रहे
ReplyDeleteआबे-हयात का ही कोई कतरा नहीं मिला।
वाह! सभी अशार दिलकश....
सादर
बहुत सुन्दर रचना ...वाह
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