Friday, June 15, 2012

रफ़्ता रफ़्ता खुशियाँ जुदा हो गई
खुद-बुलंदी की राख़ जमा हो गई।
लौटकर न आये वे लम्हे फिर कभी
और ज़िन्दगी बड़ी ही तन्हा हो गई।
ज़िस्म का शहर तो वही रहा मगर
खुदमुख्तारी शहर की हवा हो गई।
कैसे गुज़री शबे-फ़िराक़, ये न पूछ
मेरे लिए तो मुहब्बत तुहफ़ा हो गई।
इस क़दर बढ़ी दीवानगी -ए -शौक़
मिलने की आस भी, दुआ हो गई।

1 comment:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    बधाई सर जी ||

    ReplyDelete