Sunday, April 1, 2012

घर का दर खुला रहा ,रात निकल गई
हद से बाहर अब तो बात निकल गई।

हम दर्द को बेक़सी या बेबसी कहते रहे
मुक़द्दर से उसकी मुलाक़ात निकल गई।
लेकर चले थे सामान जो यहीं का था
इस कश्मकश में पूरी रात निकल गई।
झुलस जाता ज़िस्म सहरा की तपिश में
शुक्र हुआ आँखों से बरसात निकल गई।
एक ही जुमला उसने बार बार सुनाया
अजीब सी वो तर्ज़े-मुलाक़ात निकल गई।
सस्ते दाम में मेरी महंगी शय बिक गई
ज़िन्दगी गिनती नुकसानात निकल गई।






1 comment:

  1. झुलस जाता ज़िस्म सहरा की तपिश में
    शुक्र हुआ आँखों से बरसात निकल गई।

    सस्ते दाम में मेरी महंगी शय बिक गई
    ज़िन्दगी गिनती नुकसानात निकल गई।
    बहुत सुंदर गजल सर...
    सादर।

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