Sunday, October 16, 2011

पंखुडियां ग़ज़ल की खिलती चली गई
खुशबू कतरा कतरा बिखरती चली गई।
धडकने दिल की थी या रूह की ख़ुशी
रफ्ता रफ्ता जिस्म में भरती चली गई।
अदा उनके कहने की भी लाजवाब थी
महबूब बनके ज़हन में बसती चली गई।
गुलबन्द थी पायजेब थी या थी चूड़ियाँ
खनकी ऐसे दिल में उतरती चली गई।
ज़र्रा ज़र्रा रोशन हो गया बज़्म का
चांदनी सी मानो बिखरती चली गई।
और इससे ज्यादा मैं ज़िक्र क्या करूं
मन में उथल पुथल मचती चली गई।

1 comment:

  1. पंखुडियां ग़ज़ल की खिलती चली गई
    खुशबू कतरा कतरा बिखरती चली गई।

    बहुत सुंदर प्रस्तुति. शुभकामनायें.

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