सोमवार -रोटी , सब्जी ,दाल ,सोयाबीन की बड़ी ।
मंगलवार - चावल ,साम्भर अथवा चावल सब्जी ।
बुधवार - चावल और कढी ।
ब्रहस्पतिवार- सब्जी युक्त दाल रोटी ।
शुक्रवार - ताहरी ,सोयाबीन की बड़ी ।
शनिवार - चावल के साथ सब्जी ।
मिड -डे -मील का मेनयु बन कर दीवार पर ठंग गया।
बच्चों को पोष्टिक आहार दिलाने का वायदा कर गया ।
पर खाने को मजबूर हैं रोज़ कभी मीठा कभी नमकीन दलिया।
दो साल पहले मुख्य मंत्री के आने पर मिला था दाल चावल
दाल रोटी खाए भी अब एक अरसा बीत गया ।
अब तो खाना पूर्ति ही हो रही है बस खिलवाड़ ही चल रहा ।
मेन यु दीवार पर लिखा मिट कर रह गया ।
कढी चावल का मिलना सपना बन कर रह गया ।
Friday, July 30, 2010
Wednesday, July 28, 2010
आईने ने तो बहुत खुबसूरत लगने की गवाही दी थी .
आईने ने तो बहुत खुबसूरत लगने की गवाही दी थी
कोई मुझे देखा करे मैंने ही किसी को यह हक न दिया।
वक्त ने भी मेरी तन्हाइयों को पहचान लिया था
मेरे गरूर ने मुझे किसी आँख में रहने एक पल न दिया।
रह रह कर कईं सिलसिले याद आ रहे हैं आज
काश ! भूले से ही किसी महफ़िल में रह लिए होते ।
आज वक़्त ही वक़्त है काटे से भी नहीं कटता
कभी मोहलत मिली होती अपनों से गले मिल लिए होते।
कोई मुझे देखा करे मैंने ही किसी को यह हक न दिया।
वक्त ने भी मेरी तन्हाइयों को पहचान लिया था
मेरे गरूर ने मुझे किसी आँख में रहने एक पल न दिया।
रह रह कर कईं सिलसिले याद आ रहे हैं आज
काश ! भूले से ही किसी महफ़िल में रह लिए होते ।
आज वक़्त ही वक़्त है काटे से भी नहीं कटता
कभी मोहलत मिली होती अपनों से गले मिल लिए होते।
अमुआ की डाली पर अब झूला नहीं पड़ता .
अमुआ की डाली पर अब झूला नहीं पड़ता
सावन में कजरी गाने का मन नहीं करता।
हफ्ते दस दिन की झड़ी लगा करती थी
सावन भी झूम कर अब नहीं बरसता ।
नन्ही बुन्दियों में सावन झूला करती थी
गोरी का झूलने का अब मन नहीं करता।
मेहंदी चूड़ियों की कभी बहार हुआ करती थी
उन यादों में कोई अब मगन नहीं मिलता ।
तीज का सिंधारा सबसे बड़ा हुआ करता था
शहर में अब इसका कहीं नाम नहीं सुनता ।
परदेस में जा कर के सब बस गये हैं अपने
अपना भी दिल यहाँ अब नहीं लगता ।
सावन में कजरी गाने का मन नहीं करता।
हफ्ते दस दिन की झड़ी लगा करती थी
सावन भी झूम कर अब नहीं बरसता ।
नन्ही बुन्दियों में सावन झूला करती थी
गोरी का झूलने का अब मन नहीं करता।
मेहंदी चूड़ियों की कभी बहार हुआ करती थी
उन यादों में कोई अब मगन नहीं मिलता ।
तीज का सिंधारा सबसे बड़ा हुआ करता था
शहर में अब इसका कहीं नाम नहीं सुनता ।
परदेस में जा कर के सब बस गये हैं अपने
अपना भी दिल यहाँ अब नहीं लगता ।
Tuesday, July 27, 2010
अँधेरा बता रहा है अब शब् नहीं रही .
अँधेरा बता रहा है अब शब् नहीं रही
चिराग मांगने की नौबत अब नहीं रही।
चाहतों का दम भी अपनी चूक गया है
बस मलाल यह है अब तलब नहीं रही।
उसने पुराने घाव पर नश्तर चला दिया
आह भी अब हर्फे-जेरे-लब नहीं रही ।
खुशबु का हिसाब कर लिया था कल ही
लबों पर मुस्कराहट वह अब नहीं रही।
असर नहीं होगा हम पर किसी का अब
दुआएं हमारी कभी कम-नसब नहीं रही।
चिराग मांगने की नौबत अब नहीं रही।
चाहतों का दम भी अपनी चूक गया है
बस मलाल यह है अब तलब नहीं रही।
उसने पुराने घाव पर नश्तर चला दिया
आह भी अब हर्फे-जेरे-लब नहीं रही ।
खुशबु का हिसाब कर लिया था कल ही
लबों पर मुस्कराहट वह अब नहीं रही।
असर नहीं होगा हम पर किसी का अब
दुआएं हमारी कभी कम-नसब नहीं रही।
Wednesday, July 21, 2010
खुशबुओं के दरीचे खुल गये .
या तो खुशबुओं के कही दरीचे खुल गये
या नयी किस्म के कहीं फूल खिल गए ।
हवा में घुली है महक उनके शबाब की
या अंगडाई लेकर वो खुद मचल गये।
खिंचते चले गये हम अल्लाह के करम से
जेहन में खुश्बुओं के कतरे ठहर गये ।
उनके करीब जाके उन्हें पलकों से छुआ
आँखों में अनजान से सपने मचल गये ।
दिल बंदिशों में फिर कैसे रहता बंध कर
तूफ़ान में हम तिनका तिनका बिखर गये।
इम्तिहान जैसे ले रही थी हमारा कुदरत
जिस्म में सैलाब के दरिया मचल गये ।
या नयी किस्म के कहीं फूल खिल गए ।
हवा में घुली है महक उनके शबाब की
या अंगडाई लेकर वो खुद मचल गये।
खिंचते चले गये हम अल्लाह के करम से
जेहन में खुश्बुओं के कतरे ठहर गये ।
उनके करीब जाके उन्हें पलकों से छुआ
आँखों में अनजान से सपने मचल गये ।
दिल बंदिशों में फिर कैसे रहता बंध कर
तूफ़ान में हम तिनका तिनका बिखर गये।
इम्तिहान जैसे ले रही थी हमारा कुदरत
जिस्म में सैलाब के दरिया मचल गये ।
Saturday, July 17, 2010
नर्म हथेली पे हिना से नाम लिखके मेरा
खुद अपने से ही शर्माए जा रहे हैं वो
मुझसे भी नज़रें चुराए जा रहें हैं वो।
नर्म हथेली पे हिना से नाम लिखके मेरा
महफ़िल में बहुत इतराए जा रहे हैं वो।
बार बार दिल पे हाथ रख के अपने
मुझे जैसे सीने से लगाये जा रहे हैं वो।
ओठों पे मेरे प्यार की सुर्खी लिए हुए
आहों भरे नगमें गुनगुनाये जा रहे हैं वो।
उन्हें इतना खुबसूरत कभी नहीं देखा
यौवन के गुलमोहर खिलाये जा रहे हैं वो।
मुझसे भी नज़रें चुराए जा रहें हैं वो।
नर्म हथेली पे हिना से नाम लिखके मेरा
महफ़िल में बहुत इतराए जा रहे हैं वो।
बार बार दिल पे हाथ रख के अपने
मुझे जैसे सीने से लगाये जा रहे हैं वो।
ओठों पे मेरे प्यार की सुर्खी लिए हुए
आहों भरे नगमें गुनगुनाये जा रहे हैं वो।
उन्हें इतना खुबसूरत कभी नहीं देखा
यौवन के गुलमोहर खिलाये जा रहे हैं वो।
Tuesday, July 13, 2010
हर किसी को आता है आईने में चेहरा देखना.
हर किसी को आता है आईने में चेहरा देखना
हर कोई चाहता है अच्छा ही अच्छा देखना।
किसी के साथ रहना अच्छा लगता है।
कोई नहीं चाहता खुद को अकेला देखना।
बदले बिना जिंदगी एकदम ठहर जाती है।
कौन नहीं चाहता खुद को बदलता देखना।
बदलने की चाहत हर दिल में होती है पर
कोई नहीं चाहता दूसरे को बदलता देखना।
अपने आखिरी वक़्त में मजबूर न हो जाऊं
मैं चाहता हूँ तब भी खुद को चलता देखना।
हर कोई चाहता है अच्छा ही अच्छा देखना।
किसी के साथ रहना अच्छा लगता है।
कोई नहीं चाहता खुद को अकेला देखना।
बदले बिना जिंदगी एकदम ठहर जाती है।
कौन नहीं चाहता खुद को बदलता देखना।
बदलने की चाहत हर दिल में होती है पर
कोई नहीं चाहता दूसरे को बदलता देखना।
अपने आखिरी वक़्त में मजबूर न हो जाऊं
मैं चाहता हूँ तब भी खुद को चलता देखना।
इंसान की जान की कीमत
सब कहते हैं कि मंहगाई बढ़ रही है
मैं कहता हूँ वह वहीँ की वहीँ ही है।
इंसां की जां की कीमत सुपारी थी
इंसां की जां की कीमत सुपारी ही है।
दोस्ती निभाना बहुत ही जरूरी है
रिश्तेदारी तो बस दुनियादारी ही है।
एक का बने रहना मुमकिन नहीं
वफादारी हर पल बदल रही है ।
ईमान बचाना बहुत मुश्किल है
बोली सरे आम लग रही है ।
मैं कहता हूँ वह वहीँ की वहीँ ही है।
इंसां की जां की कीमत सुपारी थी
इंसां की जां की कीमत सुपारी ही है।
दोस्ती निभाना बहुत ही जरूरी है
रिश्तेदारी तो बस दुनियादारी ही है।
एक का बने रहना मुमकिन नहीं
वफादारी हर पल बदल रही है ।
ईमान बचाना बहुत मुश्किल है
बोली सरे आम लग रही है ।
Sunday, July 11, 2010
बचपन गुजर जाता है.
बचपन कितना सुंदर हो गुजर जाता है
मन की दहलीज पर सन्नाटा पसर जाता है।
सियाह काले बादल घिर कर जब आते हैं
उजले दिन में भी अँधेरा बिखर जाता है।
सूखे जर्द पत्तों से खुशबु नहीं मिलती
हवा के साथ उनपर गम उभर जाता है।
उदासियों के बीच उभरती है हंसी जब
चेहरे पर एक नया दर्द निखर जाता है।
रात में जब बिजली चली जाती है
बच्चा माँ की गोद में भी डर जाता है।
मन की दहलीज पर सन्नाटा पसर जाता है।
सियाह काले बादल घिर कर जब आते हैं
उजले दिन में भी अँधेरा बिखर जाता है।
सूखे जर्द पत्तों से खुशबु नहीं मिलती
हवा के साथ उनपर गम उभर जाता है।
उदासियों के बीच उभरती है हंसी जब
चेहरे पर एक नया दर्द निखर जाता है।
रात में जब बिजली चली जाती है
बच्चा माँ की गोद में भी डर जाता है।
Saturday, July 10, 2010
मैं जिंदगी में रूका नहीं हूँ
मैं किसी को दुःख देता नहीं हूँ
कोई गम सीने में रखता नहीं हूँ।
हर कोई चाहता है पढना मुझे
मैं किताब का पन्ना नहीं हूँ ।
मिटटी से बना हुआ हूँ मैं भी
बस दूध से धुला नहीं हूँ ।
सब रश्क करते हैं मुझसे
कभी जिंदगी में रूका नहीं हूँ।
एक अदद घर है मेरा भी
मैं कहीं भी भटकता नहीं हूँ ।
कोई गम सीने में रखता नहीं हूँ।
हर कोई चाहता है पढना मुझे
मैं किताब का पन्ना नहीं हूँ ।
मिटटी से बना हुआ हूँ मैं भी
बस दूध से धुला नहीं हूँ ।
सब रश्क करते हैं मुझसे
कभी जिंदगी में रूका नहीं हूँ।
एक अदद घर है मेरा भी
मैं कहीं भी भटकता नहीं हूँ ।
दीवानगी का इज़हार करना नहीं आया.
अपनी दीवानगी का इज़हार करना नहीं आया
जी भर कर किसी से प्यार करना नहीं आया
तबियत में तकल्लुफ रहा इतना ज्यादा
उम्र कट गई इसरार करना नहीं आया ।
दुआ अपनी भी कबूल हो जाती करते तो
खुद को किसी के हमवार करना नहीं आया।
पाँव रखते ही महकता था आंगन दिल का
क़दमों को कम रफ्तार करना नहीं आया ।
पल पल पर हमने लुटाई थी खुशबुएँ
अपने को बस बेकरार करना नहीं आया।
बच कर हम भी निकल सकते थे लेकिन
हमें खुलकर इन्कार करना नहीं आया।
आसमान जमीन पर उतर भी सकता था
पलट कर के कभी वार करना नहीं आया ।
जी भर कर किसी से प्यार करना नहीं आया
तबियत में तकल्लुफ रहा इतना ज्यादा
उम्र कट गई इसरार करना नहीं आया ।
दुआ अपनी भी कबूल हो जाती करते तो
खुद को किसी के हमवार करना नहीं आया।
पाँव रखते ही महकता था आंगन दिल का
क़दमों को कम रफ्तार करना नहीं आया ।
पल पल पर हमने लुटाई थी खुशबुएँ
अपने को बस बेकरार करना नहीं आया।
बच कर हम भी निकल सकते थे लेकिन
हमें खुलकर इन्कार करना नहीं आया।
आसमान जमीन पर उतर भी सकता था
पलट कर के कभी वार करना नहीं आया ।
Friday, July 9, 2010
वह पसीना सुखाता है.
किसी को छाहं में पसीना आता है
वह धूप में खड़ा पसीना सुखाता है।
अपने जिस्म से बाहर निकल के
वह तमाम शहर के काम आता है।
किसी के अदब से पीछे नहीं हटता
चलते चलते रस्ता छोड़ जाता है।
इंतज़ार उसका किया करते हैं सब
वह प्यास के लिए कतरा बन जाता है।
करूं क्या उसके भटकने का जिक्र
वह हर कूचे से रिश्ता निभा जाता है।
वह धूप में खड़ा पसीना सुखाता है।
अपने जिस्म से बाहर निकल के
वह तमाम शहर के काम आता है।
किसी के अदब से पीछे नहीं हटता
चलते चलते रस्ता छोड़ जाता है।
इंतज़ार उसका किया करते हैं सब
वह प्यास के लिए कतरा बन जाता है।
करूं क्या उसके भटकने का जिक्र
वह हर कूचे से रिश्ता निभा जाता है।
Thursday, July 8, 2010
बरसना न भूल जाऊं थोडा थोडा बरस जाता हूँ.
तू मुझे न भूल जाए इसलिए नज़र आता हूँ
चलते चलते तुझ पर अहसान कर जाता हूँ।
बादल ने सहरा से मुस्कराकर कुछ यूं कहा
बरसना न भूल जाऊं थोडा थोडा बरस जाता हूँ।
इतना नहीं है दम मुझमें दर दर भटका करूं
नशे में रहकर भी मैं अपने ही घर जाता हूँ ।
देखने को अब बाकी बचा भी क्या शहर में
भागता हूँ फिसलता हूँ और गिर जाता हूँ ।
कहने को सीने में धडकता है नन्हा सा दिल
मनों बोझ जिंदगी का ढोए उस पर जाता हूँ।
जान लेवा हो रही है आबो- हवा दुनिया की
रिश्तों के अंदाज़ पर सहम कर रह जाता हूँ।
छोडो रहने दो जाने दो खत्म करो किस्से को
अपने गीत से समाज में नयापन भर जाता हूँ।
चलते चलते तुझ पर अहसान कर जाता हूँ।
बादल ने सहरा से मुस्कराकर कुछ यूं कहा
बरसना न भूल जाऊं थोडा थोडा बरस जाता हूँ।
इतना नहीं है दम मुझमें दर दर भटका करूं
नशे में रहकर भी मैं अपने ही घर जाता हूँ ।
देखने को अब बाकी बचा भी क्या शहर में
भागता हूँ फिसलता हूँ और गिर जाता हूँ ।
कहने को सीने में धडकता है नन्हा सा दिल
मनों बोझ जिंदगी का ढोए उस पर जाता हूँ।
जान लेवा हो रही है आबो- हवा दुनिया की
रिश्तों के अंदाज़ पर सहम कर रह जाता हूँ।
छोडो रहने दो जाने दो खत्म करो किस्से को
अपने गीत से समाज में नयापन भर जाता हूँ।
Wednesday, July 7, 2010
मैं नादान नहीं हूँ .
चुप रहता हूँ मगर नादान नहीं हूँ
किसी बात से मैं अनजान नहीं हूँ।
शहर में आ जाता हूँ कभी कभी
हर वक़्त का मैं मेहमान नहीं हूँ ।
इलज़ाम मुझ पर कोई लगाएगा क्या
मैं किसी का करता नुकसान नहीं हूँ।
भरोसा है बहुत खुदा पर मुझको
उसकी रहमतों से मैं वीरान नहीं हूँ ।
अपनी कलम से लिखता हूँ ग़ज़ल अपनी
करता किसी पर कोई अहसान नहीं हूँ।
किसी बात से मैं अनजान नहीं हूँ।
शहर में आ जाता हूँ कभी कभी
हर वक़्त का मैं मेहमान नहीं हूँ ।
इलज़ाम मुझ पर कोई लगाएगा क्या
मैं किसी का करता नुकसान नहीं हूँ।
भरोसा है बहुत खुदा पर मुझको
उसकी रहमतों से मैं वीरान नहीं हूँ ।
अपनी कलम से लिखता हूँ ग़ज़ल अपनी
करता किसी पर कोई अहसान नहीं हूँ।
कुछ नहीं रहा.
बदलाव में उस वक़्त का कुछ नहीं रहा
तुम तुम नहीं रहे मैं अब वह नहीं रहा ।
जिस दम से हाथ बढाया था मैंने तेरी तरफ
बिछड़ने के बाद मुझमे दम वह नहीं रहा ।
आँखों में लरजता नम कतरा कह रहा
अश्कों में भी जज्बा अब वह नहीं रहा ।
शहर में रहने की तरजीह दे रहे हैं लोग
लगता है गाँव भी गाँव अब वह नहीं रहा।
कभी फुरसत मिली तो सोचेंगे बैठकर यह
क्यों आज आज नहीं रहा कल वह नहीं रहा।
तुम तुम नहीं रहे मैं अब वह नहीं रहा ।
जिस दम से हाथ बढाया था मैंने तेरी तरफ
बिछड़ने के बाद मुझमे दम वह नहीं रहा ।
आँखों में लरजता नम कतरा कह रहा
अश्कों में भी जज्बा अब वह नहीं रहा ।
शहर में रहने की तरजीह दे रहे हैं लोग
लगता है गाँव भी गाँव अब वह नहीं रहा।
कभी फुरसत मिली तो सोचेंगे बैठकर यह
क्यों आज आज नहीं रहा कल वह नहीं रहा।
Tuesday, July 6, 2010
खाली घर हो गया.
तुम्हारे जाने से खाली घर हो गया
नई तरह का पैदा सूनापन हो गया ।
दिल बचपन से पक्का दोस्त था मेरा
लम्हा लम्हा वह भी दुश्मन हो गया ।
जमीं हिल जाती है आसमां नहीं हिलता
छत टूटी तो सच यह बेअसर हो गया ।
क़दम क़दम पर होने लगे हैं हादसे
खतरे में जिंदगी का हर पल हो गया ।
बीमारी ने सूरत इतनी बिगाड़ दी
दूर आइना भी मुझसे अब हो गया '
नई तरह का पैदा सूनापन हो गया ।
दिल बचपन से पक्का दोस्त था मेरा
लम्हा लम्हा वह भी दुश्मन हो गया ।
जमीं हिल जाती है आसमां नहीं हिलता
छत टूटी तो सच यह बेअसर हो गया ।
क़दम क़दम पर होने लगे हैं हादसे
खतरे में जिंदगी का हर पल हो गया ।
बीमारी ने सूरत इतनी बिगाड़ दी
दूर आइना भी मुझसे अब हो गया '
कभी दिन बरस सा लगता है .
कभी दिन बरस सा लगता है
वक़्त कभी एकदम गुजरता है।
सोचता रह जाता है आदमी
मुंह से कुछ निकल पड़ता है।
घायल कर देता है जिस्म को
तीर जब कमान से निकलता है।
मेह्नत सब ही किया करते हैं
चोटी पर एक ही पहुँचता है।
हार का गम बर्दाश्त नहीं होता
आदमी जीते जी मरता लगता है।
वक़्त कभी एकदम गुजरता है।
सोचता रह जाता है आदमी
मुंह से कुछ निकल पड़ता है।
घायल कर देता है जिस्म को
तीर जब कमान से निकलता है।
मेह्नत सब ही किया करते हैं
चोटी पर एक ही पहुँचता है।
हार का गम बर्दाश्त नहीं होता
आदमी जीते जी मरता लगता है।
Monday, July 5, 2010
बेडरूम उसका खाली पड़ा है
बेडरूम उसका खाली पड़ा है
डबलबेड आँगन में पड़ा है।
ड्राइंगरूम में जगह नहीं है
फर्नीचर गलियारे में पड़ा है।
अपने रस्मो रिवाज़ हैं उसके
हर हाल में वह खुश बड़ा है।
नहीं है चिंता कोई उसको
अपनी धुन का पक्का बड़ा है।
अपने में मस्त है वह बहुत
उसे न किसी से कोई गिला है।
खुद्दार है वैसे तो बहुत वह
इन्सां न ऐसा कोई मिला है।
डबलबेड आँगन में पड़ा है।
ड्राइंगरूम में जगह नहीं है
फर्नीचर गलियारे में पड़ा है।
अपने रस्मो रिवाज़ हैं उसके
हर हाल में वह खुश बड़ा है।
नहीं है चिंता कोई उसको
अपनी धुन का पक्का बड़ा है।
अपने में मस्त है वह बहुत
उसे न किसी से कोई गिला है।
खुद्दार है वैसे तो बहुत वह
इन्सां न ऐसा कोई मिला है।
Friday, July 2, 2010
दिल गम का तहखाना है
दिल गम का तहखाना है
मोहब्बत इसका फसाना है ।
है खुद से नहीं वाकिफ दिल
यह खुशियों का खज़ाना है ।
एक एक कर इस दिन ने
तो रोज़ बीत जाना है ।
दोस्ती दुश्मनी के रिश्ते ने
यहीं पर ही रह जाना है ।
जाना है उस घर सबको
इस घर न कोई ठिकाना है।
इस घर के उस घर के बीच
जिंदगी एक मैखाना है ।
अपना किरदार निभाकर
सबने जहां छोड़ जाना है।
जिंदगी झीनी चादर है
इसने तो फट जाना है ।
मोहब्बत इसका फसाना है ।
है खुद से नहीं वाकिफ दिल
यह खुशियों का खज़ाना है ।
एक एक कर इस दिन ने
तो रोज़ बीत जाना है ।
दोस्ती दुश्मनी के रिश्ते ने
यहीं पर ही रह जाना है ।
जाना है उस घर सबको
इस घर न कोई ठिकाना है।
इस घर के उस घर के बीच
जिंदगी एक मैखाना है ।
अपना किरदार निभाकर
सबने जहां छोड़ जाना है।
जिंदगी झीनी चादर है
इसने तो फट जाना है ।
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