Wednesday, February 27, 2019

मैं सत्येन्द्र गुप्ता नजीबाबाद जिला बिजनौर उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ
कविता गीत छंद या गजल में
अपनी बात कहने और उसे पूरा करने के लिए चार लाइनों यानि चार मिसरो की आवश्यकता होती है । मैंने अपनी बात कहने और पूरी करने के लिए चार नहीं तीन मिसरो का एक नया सिलसिला शुरू किया है । तीन मिसरो में उसकी सुन्दरता में चार चांद लग जाते हैं चौथे मिसरे की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है ।यह एक
नई विधा है जिसे मैंने नाम दिया है -- तिरोहे -- तीन मिसरी शायरी । इस विधा पर इन्डियन वर्चुअल यूनिवर्सिटी फार पीस एंड एजुकेशन बंगलौर ने मुझे डाक्टर आफ हिंदी साहित्य की मानिद उपाधि से नवाज़ा है तिरोहे लिखते हुए मुझे असीम सुख का एहसास होता है ।तिरोहे वास्तव मेँ अतीत और वर्तमान की भावनात्मक यात्रा का अदभुत परिणाम है एक अनूठा प्रयास है ।तिरोहे में पहला मिसरा स्वतंत्र है दूसरा और तीसरा मिसरा रदीफ और काफिए मे है
बदसूरत हो गया अब चेहरा बहुत
नया शीशा मंगाने से क्या फायदा
झूठी शान दिखाने से क्या फायदा
अपनी ही फकीरी में मस्त रहता हो
फिर ऐसा कोई संत कबीर न मिला
प्यादे बहुत मिले कोई वज़ीर न मिला
भूखे पेट मां ने कभी सोने न दिया
खुद सो गई मुझे खिलाते खिलाते
थक गई मां कहानी सुनाते सुनाते
---- डॉ सत्येन्द्र गुप्ता
तीन मिसरी शायरी
एक तिरोही गज़ल
सजदे करेगा बुढापा जब भी चौखट पर
मुझे अपनी अल्हड़ जवानी याद आएगी 
नए लिबास में महक पुरानी याद आएगी
तरसा करेंगी ख्वाब को जब कभी रातें
हवाओं की यह छेड़ खानी यादआएगी
यह फ़िजा यह रूत सुहानी याद आएगी
चेहरे पर नुमायां होगें उम्र के जब निशां
चेहरे पर वो ज़िल्द चढ़ानी याद आएगी
बच्चों जैसी उनकी शैतानी याद आएगी
क़मर क़मान थी उनकी निगाहें तीर थी
उनकी वह मदमस्त जवानी याद आएगी
खौलते लहू की गर्म रवानी याद आएगी
शहरयारी की तमन्ना थी तेरे ही शहर में
यह कूचे ये गलियां पुरानी याद आएगी
कुछ घटाएँ काली तूफानी याद आएगी
बहुत पिया है इश्क का ज़हर हमने भी
रह रह कर मीरा दीवानी याद आएगी
दौर ए वक्त की सुल्तानी याद आएगी
जब मेरा यार मुझसे दूर चला जाएगा
शबे हिज़्र उसकी मेहमानी याद आएगी
गज़ल उसकी वही पुरानी याद आएगी
मैं और मेरा आईना तन्हा ही रह जाएंगे
उनकी दी कोई निशानी याद आएगी
टूटी-फूटी सी यही कहानी याद आएगी
------ डॉ सत्येन्द्र गुप्ता

Sunday, February 10, 2019



मेरी नयी खोज

तीन मिसरी शायरी 

  एक तिरोही ग़ज़ल
दिन उनके भी तो बदलेंगे कभी
लिए दिल में जो ये आस रहते हैं
अक्सर जो  फटे लिबास रहते हैं

हमाम में वह  सब के सब नंगे हैँ
वोह भी जो बाहर  ख़ास रहते हैं
जाने कैसे उनके एहसास रहते हैं

इश्क की आग में धुआं नहीं होता
अब ठिठरते हुए  मथुमास रहते है
बहार आने पर भी उदास रहते हैं

तुम्हारे गम ने मारा जीते जी हमको
गम दिल के अब आस पास रहते हैं
लेते फिर भी मगर हम सांस रहते हैं

वो जब कभी लिबास नया पहनते हैं
कितने ही आईने उनके पास रहते हैं
खोए हुए उनके होशो हवास रहते हैं
----------डॉ सत्येन्द्र गुप्ता


महोदय 

मैं सत्येन्द्र गुप्ता नजीबाबाद जिला बिजनौर उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ ।
कविता गीत छंद या गजल में 
अपनी बात कहने और उसे पूरा करने के लिए चार लाइनों यानि चार मिसरो की आवश्यकता होती है । मैंने अपनी बात कहने और पूरी करने के लिए चार नहीं तीन मिसरो का एक नया सिलसिला शुरू किया है । तीन मिसरो में उसकी सुन्दरता में चार चांद लग जाते हैं चौथे मिसरे की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है ।यह एक
नई विधा है जिसे मैंने नाम दिया है -- तिरोहे -- तीन मिसरी शायरी । इस विधा पर इन्डियन वर्चुअल युनिवर्सिटी  फॉर  पीस एंड एजुकेशन  बंगलौर ने मुझे डाक्टर ऑफ़  हिंदी साहित्य की मानिद उपाधि से नवाज़ा है - तिरोहे लिखते हुए मुझे असीम सुख का एहसास होता है ।तिरोहे वास्तव मेँ अतीत और वर्तमान की भावनात्मक यात्रा का अदभुत परिणाम है - एक अनूठा प्रयास है ।तिरोहे में पहला मिसरा स्वतंत्र है  दूसरा और तीसरा मिसरा रदीफ और काफिए मे है 

बदसूरत हो गया है अब शीशा बहुत
नया शीशा मंगाने से क्या फायदा
झूठी शान दिखाने से क्या फायदा

अपनी ही फ़क़ीरी  में मस्त रहता हो
फिर ऐसा कोई संत क़बीर  न मिला
प्यादे बहुत मिले कोई वज़ीर न मिला

भूखे पेट मां ने कभी सोने न दिया 
खुद सो गई मुझे खिलाते खिलाते
थक गई मां कहानी सुनाते सुनाते

           ---- डॉ सत्येन्द्र गुप्ता

Saturday, February 9, 2019



        तीन मिसरी शायरी

       तिरोही  ग़ज़ल 

दिन उनके भी तो बदलेंगे कभी ये
लिए दिल में वो यही आस रहते हैं [
वो जो अक़्सर फटे लिबास रहते हैं

हमाम में तो सारे के सारे  ही नंगे हैँ
वो भी जो बाहर सबसे ख़ास रहते हैं
जाने कैसे से उन में एहसास रहते हैं

इश्क़ की आग में धुआं नहीं उठता
रूठे रूठे से यह मधुमास रहते हैं
मुसलसल बादल भी बेआस रहते हैं

तुम्हारे गम ने मारा जीते जी हमको
 गम दिल  के ही आस पास रहते हैं
लेते फिर भी मगर हम सांस रहते हैं


वो जब कभी लिबास नया पहनते हैं
कितने ही आईने उनके पास होते हैं
बहके  से उनके होशो हवास रहते हैं

Thursday, February 7, 2019

तिरोहे -------तीन मिसरी शायरी 

                  के 

             जन्म दाता 

          डॉ   सत्येंद्र गुप्ता 
               -----  नजीबाबाद  
                        जि बिजनौर 
                       उत्तर प्रदेश 
             


मैं सत्येन्द्र गुप्ता नजीबाबाद जिला बिजनौर उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूँ ।
कविता गीत छंद या गजल में 
अपनी बात कहने और उसे पूरा करने के लिए चार लाइनों यानि चार मिसरो की आवश्यकता होती है । मैंने अपनी बात कहने और पूरी करने के लिए चार नहीं तीन मिसरो का एक नया सिलसिला शुरू किया है । तीन मिसरो में उसकी सुन्दरता में चार चांद लग जाते हैं चौथे मिसरे की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है ।यह एक 
नई विधा है जिसे मैंने नाम दिया है -- तिरोहे -- तीन मिसरी शायरी । इस विधा पर इन्डियन वर्चुअल यूनिवर्सिटी फार पीस एंड एजुकेशन बंगलौर ने मुझे डाक्टर आफ हिंदी साहित्य की मानिद उपाधि से नवाज़ा है तिरोहे लिखते हुए मुझे असीम सुख का एहसास होता है ।तिरोहे वास्तव मेँ अतीत और वर्तमान की भावनात्मक यात्रा का अदभुत परिणाम है एक अनूठा प्रयास है ।तिरोहे में पहला मिसरा स्वतंत्र है दूसरा और तीसरा मिसरा रदीफ और काफिए मे है 
बदसूरत हो गया है अब शीशा बहुत 
नया शीशा मंगाने से क्या फायदा 
झूठी शान दिखाने से क्या फायदा
अपनी ही फकीरी में मस्त रहता हो 
फिर ऐसा कोई संत कबीर न मिला 
प्यादे बहुत मिले वजीर न मिला
भूखे पेट मां ने सोने नहीं दिया 
खुद सो गई मुझे खिलाते खिलाते 
थक गई मां कहानी सुनाते सुनाते
---- डॉ सत्येन्द्र गुप्ता