Saturday, January 15, 2011

दरख्त चन्दन का न था महकता कैसे
घुटन दिल में थी बहुत चहकता कैसे।
हिचकियाँ ले रहा था साथ में लेटा
शब् में गम मुझे तन्हा रखता कैसे।
दीवानगी इस क़दर बढ़ी थी उसकी
किसी की सदा पर वो रुकता कैसे।
सातवें फलक से ओंधे मुंह गिरा था
हड्डी न मिली जिसकी दिखता कैसे।
सिमट गया था मुफलिसी में दायरा
दर्द खुद दवा बना था ठीक करता कैसे।
दिन शाम के कंधे सिर रख के रोता है
गले शब् के न लगता तो चमकता कैसे।
शुक्र है इंसा में जज्बा अभी जिंदा है
तमन्ना को नहीं तो जिगर मिलता कैसे।


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