Friday, January 21, 2011

इतने सारे लगे हैं मुझ पे इलज़ाम
दिल साफ़ हैं फिर भी हैं बदनाम।
तमन्ना थी हाथ मिलाने की उनसे
नहीं पता था अपना ये होगा अंजाम।
कागज़ की ही थी हमारी नाव
बादल लेते नहीं तो अपना मुकाम।
तस्वीर बनाने में लगे रहे उम्र ता
तराश न सके कभी अपना नाम।
अब तो पत्थर भी आके पूछते हैं
कहाँ है शीशा टूटा था उस शाम।



Monday, January 17, 2011

शायरी करने की कभी सोची न थी
कविता कहने की कभी सोची न थी।
इतने नादान थे हम बचपन से ही
बज़्म में रहने की कभी सोची न थी।
राहत चाहतों में बदल जाएगी
हसरतें उड़ने की कभी सोची न थी।
पत्थर तो मिलते रहे सदा से ही
हीरा गढ़ने की कभी सोची न थी।
वह तो ख्याल तेरा आ गया यूं ही
खुद से मिलने की कभी सोची न थी।
दर्द को सुकून लिखता रहा सदा
उसे झेलने की कभी सोची न थी।
पता नहीं क्या निकल गया मुंह से
गुस्सा करने की कभी सोची न थी।
सम्भलने में वक़्त कुछ तो लगेगा
रुसवा होने की कभी सोची न थी।
सुबह हुई परिंदे चहकने लगे
शफ़क़ में नए रंग भरने लगे।
आसमा देख के खुश था बहुत
दिन निकलते सब महकने लगे।
खुदा इतना बड़ा न बनाना मुझे
मुझसे मिलते हुए सब डरने लगे।
मैं इतनी न मुझ में भर देना कभी
वजूद टूटकर मेरा बिखरने लगे।

तन्हा तडपता रहूँ मैं उम्र -ता
मिटटी कंधों को मेरी तरसने लगे।
मुझे ऐसा बना देना मेरे खुदा
जिस गली चलूँ वो महकने लगे।


Saturday, January 15, 2011

फेंके हुए पत्थर सिमेट लेता
मैं अपना बिस्तर सिमेट लेता।
शहर में न बसता गर तेरे तो
मैं अपना दफ्तर सिमेट लेता।
किश्ती न टूटती रस्ते में गर
बाहों में समन्दर सिमेट लेता।
बर्फ के रस्ते कट जाते अगर
रेत की रहगुज़र सिमेट लेता।
वरक़ वरक़ फसाना न बिखरता
अगर अपना घर सिमेट लेता।
ग़ज़ल के पाँव न पड़ते बज्म में
तो मैं अपने शेर सिमेट लेता।
खुदा बख्शता शिफा जो मुझे
दुआओं में असर सिमेट लेता।


दोस्ती करने को मजबूर कर दिया
आईने ने पत्थर में गरूर भर दिया।
अपनी फितरत से मजबूर था बहुत
आइना पत्थर ने चकनाचूर कर दिया।
नाम लेते हैं लोग दोनों का साथ में
आईने ने पत्थर को मशहूर कर दिया।
कांच की दीवानगी की कद्र न की उसने
टकराते ही टूटने को मजबूर कर दिया।
दोस्ती का आईने ने हक यूँ अदा किया
चोट खाकर भी टूटना मंजूर कर दिया।
दरख्त चन्दन का न था महकता कैसे
घुटन दिल में थी बहुत चहकता कैसे।
हिचकियाँ ले रहा था साथ में लेटा
शब् में गम मुझे तन्हा रखता कैसे।
दीवानगी इस क़दर बढ़ी थी उसकी
किसी की सदा पर वो रुकता कैसे।
सातवें फलक से ओंधे मुंह गिरा था
हड्डी न मिली जिसकी दिखता कैसे।
सिमट गया था मुफलिसी में दायरा
दर्द खुद दवा बना था ठीक करता कैसे।
दिन शाम के कंधे सिर रख के रोता है
गले शब् के न लगता तो चमकता कैसे।
शुक्र है इंसा में जज्बा अभी जिंदा है
तमन्ना को नहीं तो जिगर मिलता कैसे।


Wednesday, January 12, 2011

दिल को मेरे दुखा गया कोई
लम्हे वो याद दिला गया कोई।
गुलाब बनकर नश्तर से मेरे
जख्म को सहला गया कोई।
तमाम रंग चुराके ख्वाबों के
खुली हवा में उड़ा गया कोई।
मैंने पूछा राज़ उसके आने का
अजाब फ़साना सुना गया कोई।
हाथ पकड़ रहबर बनके मेरा
गलत रस्ता दिखा गया कोई।
महताब था या अक्स उसका
पानी में आइना दिखा गया कोई।
हम बिखरा सामान बांधते रहे
वो सामान मेरा खंगालते रहे।
जितना मैं उनके दायरे में रहा
हदें मेरी उतनी ही बांधते रहे।
बोझ लगते हैं उन्हें रिश्ते सारे
हम गाँठ रिश्ते की बांधते रहे।
हमें मयस्सर थे कुछ ही पल
वो सदियाँ मुट्ठी में बांधते रहे।
हैरानियाँ आँखों में लिए हम
वजूद में उनके झांकते रहे।
जोशे इन्कलाब दिल में आया
पर सपने दहलीज़ लांघते रहे।

Wednesday, January 5, 2011

किसी को भूल जाऊं कैसे
याद दिल से मिटाऊं कैसे।
अपना अपना ही होता है
ये बात उसे बताऊँ कैसे।
समंदर आवाजें देता है
करीब उसके जाऊं कैसे।
किनारा बीच में पड़ता है
जी उसका बहलाऊं कैसे।
कोई बता दे मुझे इतना
मैं उसके घर जाऊं कैसे।
मैं इतना भी बे गैरत नहीं
नज़र से गिर जाऊं कैसे।
नमक से नमक कभी खाया नहीं जाता
जबरदस्ती का बोझ उठाया नहीं जाता।
रूठ कर चला गया लम्हा जो अभी अभी
नज़दीक जाके उसे मनाया नहीं जाता।
कितना ही अन्दर में मचता रहे द्वंद
दर्दे ऐ दिल हर को सुनाया नहीं जाता।
मुहर बन कर लग गया है दिल पर
जख्मे निशाँ वो मिटाया नहीं जाता।
पहाड़ों का मौसम भले ही सुन्दर हो
सहरा में कभी ले जाया नहीं जाता।
फलक टूटा तो बिखरेगा कैसे
गले ज़मीन के वो लगेगा कैसे।
गरूर खुद पर बहुत है उसको
गिर गया तो संभलेगा कैसे।
दीवारें शीशे की ही हैं सारी
लिबास अपना बदलेगा कैसे।
तिल तिल कर रोज़ मरता है
मौत न आयी तो मरेगा कैसे ।
कहानी प्यार की दो ही होती हैं
किताब अपनी लिखेगा कैसे।
ज़लज़ले बहुत आते हैं यहाँ
एक घरोंदा मेरा बनेगा कैसे।
हम तो दिल से चाहते हैं तुझे
इस बात से तू मुकरेगा कैसे.