एक कविता तिरोही
चुप रहती है जब तक़ बोतल मे बंद है
बाहर निकलते ही गज़ब बहुत ढ़ाती है
पैमाने में भरते भरते भी छ्लक जाती है
बाहर निकलते ही गज़ब बहुत ढ़ाती है
पैमाने में भरते भरते भी छ्लक जाती है
कितना खूबसूरत अंदाज़ है इसका भी
होठों को चूमने को बेताब हुई जाती है
महबूब बनकर गले से लिपटती जाती है
होठों को चूमने को बेताब हुई जाती है
महबूब बनकर गले से लिपटती जाती है
बहुत बवाल मचाती है यह शराब भी तो
जैसे जैसे गले से नीचे उतरती जाती है
रंगत अपनी असली दिखाती जाती है
जैसे जैसे गले से नीचे उतरती जाती है
रंगत अपनी असली दिखाती जाती है
आदमी को आदमी रहने नहीं देती वह
रह रह कर उसके सर पर चढ़ी जाती है
अच्छे आदमी को बना शराबी जाती है
रह रह कर उसके सर पर चढ़ी जाती है
अच्छे आदमी को बना शराबी जाती है
------ डॉ सत्येन्द्र गुप्ता
No comments:
Post a Comment