Sunday, December 23, 2012

नज़र तेरी बुरी है और पर्दा मैं करूं
तेरी हवस का सबब मैं ही क्यूँ बनूं !
मुझे जो मिला मुझी को घूरता मिला
उनकी बदनियत का ज़िक्र क्या करूं !
कब्ज़ा करने की ही फिराक में हैं सब
वहशत का सिलसिला मैं ही क्यूं बनूं !
एक से मुसाफिर हैं तुम भी और मैं भी
दरिंदगी का ज़ुल्म, मैं तन्हा क्यूँ सहूं !
वज़ह बस यह है कि मैं एक लड़की हूँ
संगदिल रिवाज़ों से भी बस मैं ही लडूं !
इज्ज़त के मेरी चिथड़े चिथड़े कर दिए
पत्थरों के शहर में रहूं तो कैसे रहूं !
हादसा न किसी के साथ फिर ऐसा हो
तसल्ली मिल जाये तो फिर मैं चलूं !

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