घड़ी घड़ी वो अपना रंग बदलते रहे
लेकर आइनों को भी संग चलते रहे।
हम उनको मुहलतें देते चले गये
बहाने मुकरने के वो सदा ढूंढते रहे।
ख़ता नहीं बताई सजा देने से पहले
इलज़ाम सर पर लगा हम देखते रहे।
दिन में बिल्कुल ही फुरसत न मिली
रातों में मुक़द्दर से हम लड़ते रहे।
रात ने भी मुझ को सोने नहीं दिया
मिलके साथ साथ सहर ढूंढते रहे।
यह बड़ा ही अजीबो गरीब सच है
मुफलिसी में सदा हम सिकुड़ते रहे।
ईमान ही दाँव पर न लगाया हमने
भले ही चीथड़े ज़िस्म पर लपेटते रहे।
Thursday, January 5, 2012
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment