Friday, October 11, 2013

कोई सरे आम लूट कर जाता है
वह  बुलाने से भी नहीं आता है !
दुश्मनी नसीब बन कर रह गई
अब मुहब्बतें भी कौन निभाता है !
इक गर्द सी फैली हुई है चारों सू
यह आंधियां भी कौन चलाता है !
वही मुद्दई है गवाह है मुंसिफ भी
अपना फैसला खुद ही सुनाता है !
यह खुशियाँ तो कर्ज़ हैं मुझ पर
वह खुशियों को बेमोल लुटाता है !
गिरा देते हैं आँख से सब ही तो
आंसुओं को भी  कौन सजाता है !
पलटकर के देखा भी नहीं उस ने
अब किसके गम कौन  उठाता है !
अब नहीं लौटेगा वह तो मौसम है
क्यों नाहक उसको तू बुलाता है !
आवारा बादल की तरह से हूँ मैं
जो आता है आकर चला जाता है !

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