Monday, July 16, 2012

शख्श जिसका कौल ओ क़रार नहीं होता
कभी भी वो क़ाबिले- ऐतबार नहीं होता।
दर पर जब तलक कोई आहट नहीं होती
दिल भी तब तलक खबरदार नहीं होता।
प्यास रफ़्ता रफ़्ता ही तो बढ़ा करती है
ज़ुनून एकदम सर पर सवार नहीं होता।
ज़मीर बेचकर बहुत ख़ुश हो रहा था वो
कहता था कि गाँव में बाज़ार नहीं होता।
वार पर वार ख़ुदा तो करता ही रहता है
किसी को भी मगर इनकार नहीं होता।
अफवाहें भी तो सदा उडती ही रहती हैं
हक़ीक़त से मैं, कभी बेज़ार नहीं होता।
उदास तो मैं था पर इतना भी नहीं था
कि जश्न मेरा ही शानदार नहीं होता।
उम्र गुज़र गई थी सारी, सोचते यही
किस दिल में छिपा ग़ुबार नहीं होता।









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