Saturday, September 10, 2011

रफ्ता रफ्ता सूरत बिलकुल बदल गई
उम्र की लकीरें भी उस पर ढल गई।
आइना देख कर आज ख्याल ये आया
शरारतें बचपन की कहाँ निकल गई।
मै दूर से ही खड़ा तमाशा देखता रहा
किश्ती कागज़ की जाने कब गल गई।
लाख जगमगाया करे शहर अंदर मेरे
मुठ्ठी में रेत थी कब की फिसल गई।
समझ न सका रुख हवाओं का कभी
बादे सबा चलती हुई दूर निकल गई।











3 comments:

  1. मै दूर से ही खड़ा तमाशा देखता रहा
    किश्ती कागज़ की जाने कब गल गई।

    खूबसूरत रचना ||
    बधाई ||

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  2. लाख जगमगाया करे शहर अंदर मेरे
    मुठ्ठी में रेत थी कब की फिसल गई।


    -वाह!! बहुत खूब!! यथार्थ उकेर दिया आपने.

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