दूर तलक कोई साथ चलता नहीं
दिवानगी का सिला अब मिलता नहीं।
वह और थे सफ़र जो तय कर गये
अँधेरे में भी जुगनू अब दिखता नहीं।
शहर की रौनक में भूल गये खुद को
पता दुनियादारी का भी मिलता नहीं।
ख़ाली हाथ कौन निकलता है घर से
फकीरी मिजाज़ अब कोई रखता नहीं।
बिजली खुली छोड़ आये अच्छा किया
चिराग आंधी में कभी जलता नहीं।
तन्हाइयों के मेले में हम भी चले जाते
दर्द कोई मुफ्त में मगर मिलता नहीं।
Wednesday, September 7, 2011
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