रफ्ता रफ्ता सूरत बिलकुल बदल गई
उम्र की लकीरें भी उस पर ढल गई।
आइना देख कर आज ख्याल ये आया
शरारतें बचपन की कहाँ निकल गई।
मै दूर से ही खड़ा तमाशा देखता रहा
किश्ती कागज़ की जाने कब गल गई।
लाख जगमगाया करे शहर अंदर मेरे
मुठ्ठी में रेत थी कब की फिसल गई।
समझ न सका रुख हवाओं का कभी
बादे सबा चलती हुई दूर निकल गई।
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मै दूर से ही खड़ा तमाशा देखता रहा
ReplyDeleteकिश्ती कागज़ की जाने कब गल गई।
खूबसूरत रचना ||
बधाई ||
लाख जगमगाया करे शहर अंदर मेरे
ReplyDeleteमुठ्ठी में रेत थी कब की फिसल गई।
-वाह!! बहुत खूब!! यथार्थ उकेर दिया आपने.
khoobsoorat likha hai ...
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