दरक़ रही थी दीवार क्या करते
अच्छे नहीं थे आसार क्या करते।
नश्तर से खरोंच नहीं लगी कभी
इस ज़ुबान का यार क्या करते।
हर हाल में रहने की आदत है हमें
बेवजह की ही तक़रार क्या करते
सुबहो शाम ज़ाम पीने में ही कटी
इस तलब का भी यार क्या करते।
सक़ून चाहते तो मिल भी जाता
मगर खुद को निखार क्या करते ।
ता उम्र मर मर कर ही जिए हम
कयामत का इंतज़ार क्या करते ।
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