तीन मिसरी शायरी कुछ नये
तिरोहे
सदिया गुज़र गई कोइ तिरोहा
ही नहीं लिख् पाया - इधर मा सरस्व्ती
की क्रिपा मुझ पर इतनी बरस रही है कि
आज़कल मुझसे तीन मिसरी शायरी के अलावा
कुछ और लिख ही नहीं पाता - कुछ तिरोहे पेश
हैं
क़ाश इंसान खुद की क़ब्र खुद बना पाता
सोने चांदी की दीवारोन से उसे सजा जाता
फिर सुक़ून से उससे वहान भी न रहा जाता
वो कहते हैं यह ज़िंदगी जिनकी बहुत हसीन है
जिनके हिस्से मे खुशिया ज़्यादा हैं गम थोडा है
वह क़्या कहे गम ने जिसको तोडा ही तोडा है
देखना अपने दर्द को हिफाज़त से पालना
सुख तो मेहमान है आयेगा चला जायेगा
दर्द ही है जो आखिर तक़ साथ निभायेगा
शराबे तमन्ना लिये बैठा रहा उनके क़रीब मैं
साक़ी ने पैमाना मुझे छोड उनको थमा दिया
मुझको आंखो में आंखे डाल के बहला दिया
कहते हैं इस वक़्त का कुछ पता नहीं
यह क़िसी को भी वज़ीर बना सकता है
नज़ीर को पल में फक़ीर बना सकता है
हम सच को रखते हैं तहो में छिपाकर
हम डर की सिलवटो में छिपे इंसान हैं
हम समाज़ के खौफ से डरे मेहमान हैं
डा सतयेंद्र गुप्ता
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