Sunday, February 15, 2015

अँधेरा गहरा था  दिखता कैसे
जलते अंगारो पर  चलता कैसे।
शीशा टूट गया था फेंकना पड़ा
दिल टूट गया था फेंकता कैसे।
बहुत तराश कर लिखा गया था
तेरा नाम दिल से  मिटता कैसे।
कमरे तक आई थी खुशबु तेरी
बाँहों में अपनी उसे भरता कैसे।
बहुत गहरे निशां देकर गया था
ज़ख़्म ताज़ा था तो सूखता कैसे।
आइना टूटा हुआ  जुड़ तो जाता
चेहरा  सालिम फिर दिखता कैसे।
मुहब्बत मांग  कर नहीं ली जाती
मैं अब्र बन कर भी बरसता कैसे।
अजब  आलम रहा बेचारगी का
अभी ज़िंदगी थी तो मरता कैसे।
बेहद हसीन थी  लौटी नहीं  कभी 
मैं  अपनी जवानी को भूलता कैसे। 
  

Thursday, February 12, 2015

चरचे तमाम शहर में  बहार के हैं
सुलगती हुई रुत में  फ़ुहार के हैं।
अपनी जीत पर  गुमान मत कर
तुझसे ज़्यादा चर्चे मेरी हार के हैं।
पता है कि हर फ़न में माहिर है तू
इक़रार में भी मंज़र इन्कार के हैं।
तूने जो दिखाए वो सब ने ही  देखे
मगर वो सपने  सारे  उधार के हैं।
मेरे अन्दर खुशियां तलाशने वाले 
मारे हुए हम भी तेरे ही वार के हैं।
आज भी मुझपे यक़ीन है सब को
रिश्ते तो  सारे  ही  ऐतबार  के हैं।
तलल्लुक़  हमसे न तोड़ पाओगे
हम उजाड़ में मौसम बहार के हैं।
सूरज जबसे निकला मैं सोच में हूं
क्या हसीं नज़ारे मेरे दयार के हैं। 
   



Monday, February 2, 2015

खुशबू बनकर  बिखरना चाहता हूँ
मेरी सादगी देख मैं क्या चाहता हूँ
लुभाता है चाँद जो मुझ को  दूर से
दिल में उसके  धड़कना चाहता हूँ।
ना नहीं कहना आया कभी मुझको
मैं हर दिल में बना रहना चाहता हूँ।
बहुत भाती हैं  यह बारिशें मुझ को
उन की बाहों  में भीगना चाहता हूँ।
मेरी बात ध्यान से न सुनी उन्होंने
उन्होंने सोचा मैं ख़ूबहा चाहता हूँ।
सच तो इतना सा ही भर है कि बस
मैं तो अब हद से गुज़रना चाहता हूँ.
    खूबहा   - पारिश्रमिक