Sunday, February 23, 2014

किसी की साख़  किसी के नाम हो गई
हमारी वहशत हम पर इल्ज़ाम हो गई।
इश्क़ में डूबकर, मुहब्बत जिसने  की
मुहब्बत अक्सर वही  बदनाम हो गई।
महफ़िल में इस क़दर रु ब रु हुए वह
उनकी अदा पर चरचा तमाम हो  गई।
दीवानगी का सबने इज़हार यूँ  किया
महफ़िल सारी उनके ही नाम हो गई।
हमें कड़े वक़्त का ही अंदाज़ न हुआ
उजालों में यह तो लगा शाम हो गई।
बहुत ढूँढा ,मुक़द्दर का पता न मिला
मुस्कराते रहे हर शय नीलाम हो गई।
उम्मीद पर ही जिए जा रहे हैं हम तो
बोझ उठाते हुए उम्र तमाम  हो गई।
टूट तो गए हम मगर झुके नहीं कभी
मेरी खुददारी  ही  मेरा इनाम हो गई।
सुपुर्द किया ख़ुद को जब से ख़ुदा के
ज़िन्दगी ही मेरी अब क़लाम हो गई।
       क़लाम - कविता
  
 

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