पेड़ गिरा तो उसने दिवार ढहा दी
फिर एक मुश्किल और बढ़ा दी।
पहले ही मसअले क्या कम थे
उन्होंने एक नई कहानी सुना दी।
फूल कहीं थे सेज कहीं बिछी थी
मिलन की कैसी यह रात सजा दी।
क्या खूब है जमाने का दस्तूर भी
जितना क़द बढ़ा बातें उतनी बढ़ा दी।
चीखते फिर रहे हैं अब साये धूप में
क्यों सूरज को सारी हकीकत बता दी।
तन्हाई पर मेरी हँसता है बहुत शोर
किसने उसे मेरे घर की राह दिखा दी।
तुम्हे पता था बिजली अभी न आएगी
जलती शमां फिर भी यकदम बुझा दी।
जख्म बिछ गये हैं जिस्म पर मेरे
जाने तुमने मुझे यह कैसी दुआ दी।
मैंने तो बात तुमको ही बताई थी
तुमने अपनी हथेली सबको दिखा दी।
वो ज़हर उगल रहे थे मुंह से अपने
तुमने उनकी बातें मखमली बता दी।
नींद जब आँखों से ही दूर हो गई
तुमने भी जागते रहने की दवा दी।
Friday, September 30, 2011
Wednesday, September 28, 2011
गुज़रे हुए जमाने की याद दिला दी
मेरे ही अफ़साने की याद दिला दी।
मेरे दिल पे कब्जा था तुम्हारा कभी
मुझे उस ठिकाने की याद दिला दी।
प्यार के चंद मोती बंद जिसमे थे
उस छिपे खजाने की याद दिला दी।
सुरमई शामों में झील के किनारे
नगमें गुनगुनाने की याद दिला दी।
गम ग़लत करते थे बैठकर के जहां
हमें उस मयखाने की याद दिला दी।
मेरे ही अफ़साने की याद दिला दी।
मेरे दिल पे कब्जा था तुम्हारा कभी
मुझे उस ठिकाने की याद दिला दी।
प्यार के चंद मोती बंद जिसमे थे
उस छिपे खजाने की याद दिला दी।
सुरमई शामों में झील के किनारे
नगमें गुनगुनाने की याद दिला दी।
गम ग़लत करते थे बैठकर के जहां
हमें उस मयखाने की याद दिला दी।
Monday, September 26, 2011
हम तपते सहरा में घर से निकल जाते हैं
वो मोम के बने हैं झट से पिघल जाते हैं।
हम सोचते रहते हैं वो काम कर जाते हैं
सबको टोपी उढ़ाकर आगे निकल जाते हैं।
तमाम मोजों के हमले जब रवां होते हैं
चलते चलते वो सफीने बदल जाते हैं।
मिलना जुलना रखते हैं सारी दुनिया से
बस हमें देखते ही तेवर बदल जाते हैं।
यह भी आदत में ही शुमार है उनकी
अपने वायदे से जल्दी फिसल जाते हैं।
उनकी नादानियों का ज़िक्र क्या करें
खिलौना मिलते ही वो बहल जाते हैं।
रवां - बढे
वो मोम के बने हैं झट से पिघल जाते हैं।
हम सोचते रहते हैं वो काम कर जाते हैं
सबको टोपी उढ़ाकर आगे निकल जाते हैं।
तमाम मोजों के हमले जब रवां होते हैं
चलते चलते वो सफीने बदल जाते हैं।
मिलना जुलना रखते हैं सारी दुनिया से
बस हमें देखते ही तेवर बदल जाते हैं।
यह भी आदत में ही शुमार है उनकी
अपने वायदे से जल्दी फिसल जाते हैं।
उनकी नादानियों का ज़िक्र क्या करें
खिलौना मिलते ही वो बहल जाते हैं।
रवां - बढे
Saturday, September 24, 2011
चाँद को छत पर चढ़ कर नहीं देखा
मैंने तुम्हे कभी जी भर कर नहीं देखा।
दम ही दम भरते रहे मुहब्बत का तुम
तुमने भी कभी मुड कर नहीं देखा।
आरज़ू तो करते रहे तुम एहतिराम की
मैं जिंदा हूँ कि नहीं आकर नहीं देखा।
मैं गम को भीतर ही सिमेट तो लेता
बदकिस्मती से मैंने समंदर नहीं देखा।
मेरे घर के आईने को एक ही मलाल है
किसी ने भी उसमे संवरकर नहीं देखा।
क़दम चूमने को बेताब थी खुशियाँ
मैंने ही उस रस्ते पे चलकर नहीं देखा।
एहतिराम- सम्मान
मैंने तुम्हे कभी जी भर कर नहीं देखा।
दम ही दम भरते रहे मुहब्बत का तुम
तुमने भी कभी मुड कर नहीं देखा।
आरज़ू तो करते रहे तुम एहतिराम की
मैं जिंदा हूँ कि नहीं आकर नहीं देखा।
मैं गम को भीतर ही सिमेट तो लेता
बदकिस्मती से मैंने समंदर नहीं देखा।
मेरे घर के आईने को एक ही मलाल है
किसी ने भी उसमे संवरकर नहीं देखा।
क़दम चूमने को बेताब थी खुशियाँ
मैंने ही उस रस्ते पे चलकर नहीं देखा।
एहतिराम- सम्मान
Thursday, September 15, 2011
Tuesday, September 13, 2011
हिंदी की सम्पदा मिटती जा रही है।
हिंदी हर पल सिसकती जा रही है।
हर वर्ष हिंदी दिवस मनाकर बस
बरसी के दायरे में सिमटती जा रही है।
प्रयोग करने को भी शब्द नहीं मिलते
विपदाएं हिंदी की बढती जा रही हैं।
अंग्रेजी स्कूल में पढी नई पीढी की
हिंदी बहुत ही बिगडती जा रही है।
व्यवहार में भी हिंदी हिंदी न रही
गहन कालिमा में विचरती जा रही है।
कितनी ही कोशिशें कर के देख ली
पर दिल से हिंदी मिटती जा रही है।
हिंदी हर पल सिसकती जा रही है।
हर वर्ष हिंदी दिवस मनाकर बस
बरसी के दायरे में सिमटती जा रही है।
प्रयोग करने को भी शब्द नहीं मिलते
विपदाएं हिंदी की बढती जा रही हैं।
अंग्रेजी स्कूल में पढी नई पीढी की
हिंदी बहुत ही बिगडती जा रही है।
व्यवहार में भी हिंदी हिंदी न रही
गहन कालिमा में विचरती जा रही है।
कितनी ही कोशिशें कर के देख ली
पर दिल से हिंदी मिटती जा रही है।
न वह शान न शौकत रही हिंदी की
न ही दिलों में चाहत रही हिंदी की।
हर क़दम पर यहाँ सवाल है खड़ा
क्यों दिल मे न मुहब्बत रही हिंदी की।
सिसकती है तड़फती कभी घुटती है
दिल मे हैं पीडाएं अनंत रही हिंदी की।
भीड़ मे गुम हो जाते हैं ज्योंकर रिश्ते
कुछ ऐसी ही हकीकत रही हिंदी की।
बताओ कहाँ मिलेंगे वह हीरे वह मोती
वह जो सम्पदा अकूत रही हिंदी की।
न ही दिलों में चाहत रही हिंदी की।
हर क़दम पर यहाँ सवाल है खड़ा
क्यों दिल मे न मुहब्बत रही हिंदी की।
सिसकती है तड़फती कभी घुटती है
दिल मे हैं पीडाएं अनंत रही हिंदी की।
भीड़ मे गुम हो जाते हैं ज्योंकर रिश्ते
कुछ ऐसी ही हकीकत रही हिंदी की।
बताओ कहाँ मिलेंगे वह हीरे वह मोती
वह जो सम्पदा अकूत रही हिंदी की।
Saturday, September 10, 2011
Wednesday, September 7, 2011
दूर तलक कोई साथ चलता नहीं
दिवानगी का सिला अब मिलता नहीं।
वह और थे सफ़र जो तय कर गये
अँधेरे में भी जुगनू अब दिखता नहीं।
शहर की रौनक में भूल गये खुद को
पता दुनियादारी का भी मिलता नहीं।
ख़ाली हाथ कौन निकलता है घर से
फकीरी मिजाज़ अब कोई रखता नहीं।
बिजली खुली छोड़ आये अच्छा किया
चिराग आंधी में कभी जलता नहीं।
तन्हाइयों के मेले में हम भी चले जाते
दर्द कोई मुफ्त में मगर मिलता नहीं।
दिवानगी का सिला अब मिलता नहीं।
वह और थे सफ़र जो तय कर गये
अँधेरे में भी जुगनू अब दिखता नहीं।
शहर की रौनक में भूल गये खुद को
पता दुनियादारी का भी मिलता नहीं।
ख़ाली हाथ कौन निकलता है घर से
फकीरी मिजाज़ अब कोई रखता नहीं।
बिजली खुली छोड़ आये अच्छा किया
चिराग आंधी में कभी जलता नहीं।
तन्हाइयों के मेले में हम भी चले जाते
दर्द कोई मुफ्त में मगर मिलता नहीं।
Sunday, September 4, 2011
हवा के ठंडे झोंके से बरसात नहीं होती
हर रात जश्न की भी रात नहीं होती।
गर्दिश के दिन घिर आते हैं जब भी
अच्छे दिनों से फिर बात नहीं होती।
सन्नाटों की जिस बस्ती में हम रहते हैं
वहां कभी सुबह कभी रात नहीं होती।
हस्ती ग़म की खैरात में नहीं मिलती
भले ही इसकी कोई औकात नहीं होती।
जिंदगी जल्दबाजी में कटती जाती है
अच्छे से इसकी खिदमात नहीं होती।
कुछ चेहरे ज़हन में सदा नक्श रहते हैं
भले ही उनसे मुलाक़ात नहीं होती।
बहुत सिरफिरा हूँ मैं यह लोग कहते हैं
कहने को जब उन पे कोई बात नहीं होती।
हर रात जश्न की भी रात नहीं होती।
गर्दिश के दिन घिर आते हैं जब भी
अच्छे दिनों से फिर बात नहीं होती।
सन्नाटों की जिस बस्ती में हम रहते हैं
वहां कभी सुबह कभी रात नहीं होती।
हस्ती ग़म की खैरात में नहीं मिलती
भले ही इसकी कोई औकात नहीं होती।
जिंदगी जल्दबाजी में कटती जाती है
अच्छे से इसकी खिदमात नहीं होती।
कुछ चेहरे ज़हन में सदा नक्श रहते हैं
भले ही उनसे मुलाक़ात नहीं होती।
बहुत सिरफिरा हूँ मैं यह लोग कहते हैं
कहने को जब उन पे कोई बात नहीं होती।
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