Friday, September 30, 2011

पेड़ गिरा तो उसने दिवार ढहा दी
फिर एक मुश्किल और बढ़ा दी।
पहले ही मसअले क्या कम थे
उन्होंने एक नई कहानी सुना दी।
फूल कहीं थे सेज कहीं बिछी थी
मिलन की कैसी यह रात सजा दी।
क्या खूब है जमाने का दस्तूर भी
जितना क़द बढ़ा बातें उतनी बढ़ा दी।
चीखते फिर रहे हैं अब साये धूप में
क्यों सूरज को सारी हकीकत बता दी।
तन्हाई पर मेरी हँसता है बहुत शोर
किसने उसे मेरे घर की राह दिखा दी।
तुम्हे पता था बिजली अभी न आएगी
जलती शमां फिर भी यकदम बुझा दी।
जख्म बिछ गये हैं जिस्म पर मेरे
जाने तुमने मुझे यह कैसी दुआ दी।
मैंने तो बात तुमको ही बताई थी
तुमने अपनी हथेली सबको दिखा दी।
वो ज़हर उगल रहे थे मुंह से अपने
तुमने उनकी बातें मखमली बता दी।
नींद जब आँखों से ही दूर हो गई
तुमने भी जागते रहने की दवा दी।

Wednesday, September 28, 2011

गुज़रे हुए जमाने की याद दिला दी
मेरे ही अफ़साने की याद दिला दी।
मेरे दिल पे कब्जा था तुम्हारा कभी
मुझे उस ठिकाने की याद दिला दी।
प्यार के चंद मोती बंद जिसमे थे
उस छिपे खजाने की याद दिला दी।

सुरमई शामों में झील के किनारे
नगमें गुनगुनाने की याद दिला दी।
गम ग़लत करते थे बैठकर के जहां
हमें उस मयखाने की याद दिला दी।




Monday, September 26, 2011

हम तपते सहरा में घर से निकल जाते हैं
वो मोम के बने हैं झट से पिघल जाते हैं।
हम सोचते रहते हैं वो काम कर जाते हैं
सबको टोपी उढ़ाकर आगे निकल जाते हैं।
तमाम मोजों के हमले जब रवां होते हैं
चलते चलते वो सफीने बदल जाते हैं।
मिलना जुलना रखते हैं सारी दुनिया से
बस हमें देखते ही तेवर बदल जाते हैं।
यह भी आदत में ही शुमार है उनकी
अपने वायदे से जल्दी फिसल जाते हैं।
उनकी नादानियों का ज़िक्र क्या करें
खिलौना मिलते ही वो बहल जाते हैं।

रवां - बढे

Saturday, September 24, 2011

चाँद को छत पर चढ़ कर नहीं देखा
मैंने तुम्हे कभी जी भर कर नहीं देखा।
दम ही दम भरते रहे मुहब्बत का तुम
तुमने भी कभी मुड कर नहीं देखा।
आरज़ू तो करते रहे तुम एहतिराम की
मैं जिंदा हूँ कि नहीं आकर नहीं देखा।
मैं गम को भीतर ही सिमेट तो लेता
बदकिस्मती से मैंने समंदर नहीं देखा।
मेरे घर के आईने को एक ही मलाल है
किसी ने भी उसमे संवरकर नहीं देखा।
क़दम चूमने को बेताब थी खुशियाँ
मैंने ही उस रस्ते पे चलकर नहीं देखा।

एहतिराम- सम्मान

Thursday, September 15, 2011

पहले तो बहुत अपमान करा दिया
फिर छोटा सा इनाम दिला दिया।
घर की दहलीज़ से उन्होंने अपनी
हमेशा खाली हाथ ही लौटा दिया।
इश्क ने जब भी कर दिया बीमार
मरते को दवा का यकीं दिला दिया।
बात के आखिर में सॉरी बोलकर
दिल को उन्होंने यूं बहला दिया।
बयां क्या करना अब दर्द दिल का
फैसला जब सारा सही बता दिया।
हर परिवार का ताना बना है हिंदी
जन साधारण की भी भाषा है हिंदी।
हम सोचते हैं ख्वाब देखते हैं हिंदी में
हर एक दिल का भी इरादा है हिंदी।
कितनी गिटपिट कर लें इंग्लिश में
गुफ्तगू की तो मगर भाषा है हिंदी।
अंग्रेजी डे कभी मनाया नहीं जाता
जश्न मनाने का भी वायदा है हिंदी।
अंग्रेजी को हर वक़्त ओढ़ लिया बिछा लिया
हिंदी को उधड़ी नंगी खाट पर सुला दिया।
हिंदी दिवस के दिन बस याद कर उसके
ज़ख्मों पर हल्का सा मरहम लगा दिया।

Tuesday, September 13, 2011

हिंदी दिवस सितम्बर माह में भरपूर सितम ढाता है
अंग्रेजी पर इस महीने सदा चढ़ बुखार सा जाता है।
गनीमत है बस यह की यह हिंदी डे ही नहीं कहलाता
अगले बरस फिर आऊंगा कह कर के चला जाता है।

हिंदी की सम्पदा मिटती जा रही है।
हिंदी हर पल सिसकती जा रही है।
हर वर्ष हिंदी दिवस मनाकर बस
बरसी के दायरे में सिमटती जा रही है।
प्रयोग करने को भी शब्द नहीं मिलते
विपदाएं हिंदी की बढती जा रही हैं।
अंग्रेजी स्कूल में पढी नई पीढी की
हिंदी बहुत ही बिगडती जा रही है।
व्यवहार में भी हिंदी हिंदी न रही
गहन कालिमा में विचरती जा रही है।
कितनी ही कोशिशें कर के देख ली
पर दिल से हिंदी मिटती जा रही है।
न वह शान न शौकत रही हिंदी की
न ही दिलों में चाहत रही हिंदी की।
हर क़दम पर यहाँ सवाल है खड़ा
क्यों दिल मे न मुहब्बत रही हिंदी की।
सिसकती है तड़फती कभी घुटती है
दिल मे हैं पीडाएं अनंत रही हिंदी की।
भीड़ मे गुम हो जाते हैं ज्योंकर रिश्ते
कुछ ऐसी ही हकीकत रही हिंदी की।
बताओ कहाँ मिलेंगे वह हीरे वह मोती
वह जो सम्पदा अकूत रही हिंदी की।

Saturday, September 10, 2011

रफ्ता रफ्ता सूरत बिलकुल बदल गई
उम्र की लकीरें भी उस पर ढल गई।
आइना देख कर आज ख्याल ये आया
शरारतें बचपन की कहाँ निकल गई।
मै दूर से ही खड़ा तमाशा देखता रहा
किश्ती कागज़ की जाने कब गल गई।
लाख जगमगाया करे शहर अंदर मेरे
मुठ्ठी में रेत थी कब की फिसल गई।
समझ न सका रुख हवाओं का कभी
बादे सबा चलती हुई दूर निकल गई।











Wednesday, September 7, 2011

दूर तलक कोई साथ चलता नहीं
दिवानगी का सिला अब मिलता नहीं।
वह और थे सफ़र जो तय कर गये
अँधेरे में भी जुगनू अब दिखता नहीं।
शहर की रौनक में भूल गये खुद को
पता दुनियादारी का भी मिलता नहीं।
ख़ाली हाथ कौन निकलता है घर से
फकीरी मिजाज़ अब कोई रखता नहीं।
बिजली खुली छोड़ आये अच्छा किया
चिराग आंधी में कभी जलता नहीं।
तन्हाइयों के मेले में हम भी चले जाते
दर्द कोई मुफ्त में मगर मिलता नहीं।

Sunday, September 4, 2011

हवा के ठंडे झोंके से बरसात नहीं होती
हर रात जश्न की भी रात नहीं होती।
गर्दिश के दिन घिर आते हैं जब भी
अच्छे दिनों से फिर बात नहीं होती।
सन्नाटों की जिस बस्ती में हम रहते हैं
वहां कभी सुबह कभी रात नहीं होती।
हस्ती ग़म की खैरात में नहीं मिलती
भले ही इसकी कोई औकात नहीं होती।
जिंदगी जल्दबाजी में कटती जाती है
अच्छे से इसकी खिदमात नहीं होती।
कुछ चेहरे ज़हन में सदा नक्श रहते हैं
भले ही उनसे मुलाक़ात नहीं होती।
बहुत सिरफिरा हूँ मैं यह लोग कहते हैं
कहने को जब उन पे कोई बात नहीं होती।