अमुआ की डाली पर अब झूला नहीं पड़ता
सावन में कजरी गाने का मन नहीं करता।
हफ्ते दस दिन की झड़ी लगा करती थी
सावन भी झूम कर अब नहीं बरसता ।
नन्ही बुन्दियों में सावन झूला करती थी
गोरी का झूलने का अब मन नहीं करता।
मेहंदी चूड़ियों की कभी बहार हुआ करती थी
उन यादों में कोई अब मगन नहीं मिलता ।
तीज का सिंधारा सबसे बड़ा हुआ करता था
शहर में अब इसका कहीं नाम नहीं सुनता ।
परदेस में जा कर के सब बस गये हैं अपने
अपना भी दिल यहाँ अब नहीं लगता ।
बहुत सुन्दर रचना ,,,,बेहतरीन प्रस्तुति ...अंतिम कुछ पन्तिया ट्रांसलेट नहीं हो पायी ..उन्हें ठीक कर ले तो रचना की सुन्दरता और निखर जायेगी ,,,,,
ReplyDeletebahut badhiya
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