सारी रात, जख्म
अपनों के , कुरेदता रहा,
सुबह होते ही, अकेला
कहीं निकल पडा ।
हम आंखों में दर्द के ,
समन्दर लिए रहे ,
बेवफा बादल ,
कहीं और बरस पडा।
पता नहीं, यहाँ वहाँ
क्या खोजता रहा?
गैरों से मिल्ल्त्दारी
निभाता रहा ।
उसे अपना घर
पसंद नहीं है शायद ,
पराई बस्ती में
ठिकाना ढूंढता रहा।
Wednesday, June 3, 2009
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