Monday, September 27, 2010

नए शहर में मसला रिहाइश का होता है

नए शहर में मसअला रिहाइश का होता है
समंदर किनारे सिलसिला बारिश का होता है।
गिर जाती है बिजली जब किसी इमारत पर
चरचा चारो और फिर साज़िश का होता है।
हुनर आ जाता है जब हाथ में काम करने का
ज़िक्र ओठों पर तब नुमाइश का होता है।
क्या जरूरी था वह मेरे पास ही आ जाता
रिश्ता तो दिलों में ख्वाहिश का होता है।
मेरी खानाबदोशी भी किसी कम न आई
लिहाज़ अमीरों की फरमाइश का होता है।

फैसला रुका हुआ मिल जाता तो अच्छा था

फैसला रुका हुआ मिल जाता तो अच्छा था
सिलसिला कोई बन जाता तो अच्छा था।
ख़ुशी से मिलता या मिलता गम से ही
करार दिल को मिल जाता तो अच्छा था।
घुट घुट के जीना भी कोई जीना है भला
गुबार दिल का निकल जाता तो अच्छा था।
है तुझ में भी है मुझ में भी अहम् भरा हुआ
घमंड दिल से निकल जाता तो अच्छा था।
नाम के साथ परेशानियाँ भी बढ़ गई मेरी
मैं अजनबी सा बन जाता तो अच्छा था।

Saturday, September 18, 2010

लकीर तेरी लकीर से मेरी बड़ी हो गयी

लकीर तेरी लकीर से मेरी बड़ी हो गयी
लकीरे ही अब अना आदमी की हो गयी।
कुछ और किसी को भी अब सूझता नहीं
कमी आदमी की बड़ी एक यही हो गयी।
माफिक नहीं हैं हालात जल्द बदल जायेंगे
तकदीर कहाँ खराब फिर अपनी हो गयी।
जीतना किसी न किसी को तो था जरूर
गम क्यों शिकस्त आज अपनी हो गयी।
होसला दिल में है अगर जिंदा उमंग है
जमाना देखेगा कल ख़ुशी अपनी हो गयी।

कब तक यूं ही बर्बाद होते रहेंगे

कब तक हम यूँ ही बर्बाद होते रहेंगे
दिल में रह रह के मलाल होते रहेंगे।
न सूखेगा समंदर का पानीतो कभी
दरियाही बस सारे ख़ाक होते रहेंगे।
शोर तनहाइयों पर हँसता ही रहेगा
बिछुड़े रिश्तों के मलाल होते रहेंगे।
जख्मो से महक तो उडती ही रहेगी
हादसे भी सुबह और शाम होते रहेंगे।
सहमा सा पेड़ खड़ा क्या देख रहा है
सदा ऐसे भी ही सवाल होते रहेंगे।

बातों में हमको न उलझाओ यारो

बातों में ही हमको न उलझाओ यारो
अपने दिल की भी कुछ सुनाओ यारो।
तलब पूरी नहीं होती है दिल की कभी
कितने ही जाम ओठों से लगाओ यारो।
तमाशा बन गया तो फिर मुश्किल होगी
सुलगी चिंगारीको राख में न दबाओ यारो।
कहा था उसने कि सूराख हो जायेगा
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।
मैं कहता हूँ वजूद ही छलनी हो गया
पत्थर शब्दों के और न उछालो यारो।
बहुत बदनाम हो चुका हूँ मैं जहान में
अब और पगड़ी न हमारी उछालो यारो।

Wednesday, September 15, 2010

सूखी शाख पर हरे पत्ते नहीं मिलते

सूखी शाख पर हरे पत्ते नहीं मिलते
टुटा दिल बहलने के रस्ते नहीं मिलते।
वह जिनसे रूह को ठंडक मिलती थी
दिल में पलते वह रिश्ते नहीं मिलते।
नकली फूलों का चलन इतना बढ़ गया
असली फूलों के गुलदस्ते नहीं मिलते।
खुशियाँ सिमटके रह गई चंद पलों में
इन्सान हर वक़्त हँसते नहीं मिलते।
गुजरना न इस डगर से काफिले लेकर
इस सरहद से आगे रस्ते नहीं मिलते।

Tuesday, September 14, 2010

हिंदी की सम्पदा सिमटती जा रही है .

हिंदी की सम्पदा सिमटती जा रही है
हिंदी पल पल सिसकती जा रही है।
प्रयोग करने को शब्द नहीं मिलते
हर दिल से हिंदी हटती जा रही है।
अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ती नई पीढी
हिंदी से बहुत ही दूर हुई जा रही है।
हिंदी में सहजता से बोल नहीं पाते
परम्परा हिंदी की टूटती जा रही है।
व्यवहार में आने वाले शब्द भूल गएहैं
अंग्रेजी शब्दों से भरपाई की जा रही है।
कितनी ही कोशिशे कर के देख ली
दशा हिंदी की बिगडती ही जा रही है।
हर वर्ष हिंदी दिवस मनाकर ही बस
बरसी की रस्म अदायगी की जा रही है।

Monday, September 13, 2010

हिंदी दिवस पर विशेष एक कविता

ज्यों माथे का अभिमान है बिंदी
हर अधर की भी शान है हिंदी।
मेरी भी है तेरी भी है सबकी है
प्यार भरी मुस्कान है हिंदी।
जन जन के हृदय की झंकार है
साहित्य का गौरव गान है हिंदी।
ज्ञान प्रकाश चहुँ और फैलाती
सब भाषाओँ में महान है हिंदी।
मानवता का पाठ पढ़ाती है यह।
सकल गुणों की खान है हिंदी।
जन मानस में खुशहाली भरती
माँ भारत की प्रिय संतान है हिंदी।

Friday, September 10, 2010

अजीब शख्श था चाहत की बयार छोड़ गया .

अजीब शख्श था चाहत की बयार छोड़ गया
वह अपने इश्क में मुझे बीमार छोड़ गया।
मेरी नज़रों में नज़रे डाल कर के वह
फिर मिलके रहने का करार छोड़ गया।
उसे पता था तन्हा न रह सकूँगा मैं
यह हवा यह फिज़ा यह बहार छोड़ गया।
जिंदगी चाहत से ही तो चला करती है
दिल में यह सबक भी तैयार छोड़ गया।
आसमां हूँ तेरी प्यास बुझा दूंगा जरूर
वह वादों की फसल तैयार छोड़ गया।
मुझे खुद से ज्यादा यकीं उस पर हुआ
हर राह में एक मंजिल तैयार छोड़ गया।
मैंने देखा था जाने के बाद ख़त उसका
अपनी शायरी के अशआर छोड़ गया।
रस्मो रिवाज़ से घबरा गया था वह
मेरे हिस्से में लम्बी इंतज़ार छोड़ गया।
दिल की वादियाँ अँधेरे में डूब गयी थी
वह दूर जलते चिराग बेशुमार छोड़ गया।

खूबसूरती पर नज़र फिसल ही जाती है.

खूबसूरती पर नज़र फिसल ही जाती है
ओंठों से आह भी निकल ही जाती है।
कितना ही परहेज से रहा करे कोई
लजीज खाने पे नियत मचल ही जाती है।
सिंगार कितना भी अच्छा कर लिया हो
आइना देख कमी निकल ही जाती है।
वक़्त कितनी भी खुशियाँ बांटा करे
तकदीर अपनी चाल चल ही जाती है।
चुप रहने दे यार बहुत बोल लिए अब
ज्यादा बोलने से जुबां फिसल ही जाती है।

Wednesday, September 8, 2010

सिर से पाँव तक उसके चादर नहीं आई

सिर से पाँव तक उसके चादर नहीं आई
मुफिलिसी घर से कभी बाहर नहीं आई।
अच्छे दिनों की आस में उम्र कट गई सारी
महकती कोई भी रात बेहतर नहीं आई।
घर तो चमन के बहुतही करीब था उसका
हवा के साथ खुशबु कभी अन्दर नहीं आई।
रस्ते भी तो खोल दिए थे मेहनत ने सारे
तकदीर उसके करीब आकर नहीं आई।
जाने क्यूं अकेला वह सदा ही रह गया
परछाई भी कभी उसके बराबर नहीं आई।

Sunday, September 5, 2010

किश्ती कागज की आती थी बनानी भूल गये

किश्ती कागज की आती थी बनानी भूल गये
बचपन की बातें सारी वह पुरानी भूल गये।
शराब दोस्त बन गयी इस हद तलक अपनी
बेवफा जिंदगी की सारी कहानी भूल गये ।
जग जग के कटा करती थी रात पलकों में
कभी सेज पर महकती थी जवानी भूल गये।
वक़्त से पहले आता था उमीदों का मानसून
जम कर कितना बरसता था पानी भूल गये।
किश्ती लडखडा गई थी हमारी जब से भंवर में
हम राहें वह सब जानी पहचानी भूल गये।
अब हम कहाँ तुम कहाँ वह रात कहाँ गई
मुहब्बत की वह बल खाती रवानी भूल गये।
वो मिलना मिलाना वह उठना बैठनासंग
भूले तो संग गलियों की कहानी भूल गये।

हर दिल के तूफां को सैलाब कर दूंगा

हर दिल के तूफां को सैलाब कर दूंगा
मैं जब कईयों को बे नकाब कर दूंगा।
फिसाद करते हैं मिलके चुपके चुपके
मैं उन सबका जीना खराब कर दूंगा।
बदी पर अपनी उतर आऊँगा जब
बोतल में जो बंद है शराब कर दूंगा।
तुमने तहे दिल से पढ़ लिया मुझे तो
खुद को मैं खुली किताब कर दूंगा।
शहर में तेरे धरा क्या है कुछ तो बता
मेरे संग चल तुझे लाजवाब कर दूंगा।
हर सांस में महका करेगा खुशबु बन
मैं तुझे एक खिलता गुलाब कर दूंगा।

आदमी कब क्या सोच ले पता नहीं.

आदमी कब क्या सोच ले पता नहीं
करता करता क्या कर बैठे पता नहीं।
वक़्त आदमी के मिजाज सा होता है
बनते बनते कब बिगड़ बैठे पता नहीं।
शहर तो कोई भी नहीं बदला उसने
हैं घर क्यों इतने बदले पता नहीं।
रहो उस के जो दिल को लगे अच्छा
वह क्यों बदलता है रिश्ते पता नहीं।
शहर रोशन करने का वादा था मगर
कहाँ उड़ गये गर्द बन के पता नहीं।
राजे-मुहब्बत दफ़न था दिल में जब
क्यों रोये गले लग के पता नहीं।
हमें तो खा गया दिल का जूनून
हुए हाथ क्यों उनके कलम पता नहीं।

Wednesday, September 1, 2010

देखते देखते जमाने बदल गए

देखते देखते जमाने बदल गए
मेरी खुद्दारी के पैमाने बदल गए।
ख़ुशी गम होते हैं अब भी मगर
उनके होने के बहाने बदल गए।
बढ़ गई दीवानगी इस हद तलक
खाका ए पैरहन पुराने बदल गए।
अह्सासे जियां भी वह नहीं रहा
हकीकते दस्तूरे मैखाने बदल गए।
खड़े सिरहाने पे आके मेरे क्यों हो
गले लगने के वे जमाने बदल गए।
नींद जब से आने लगी है हमें कम
सोने के हमारे सिरहाने बदल गए।
पलकों में रख लिया है जब से उन्हें
रहने के अपने ठिकाने बदल गए।
चेहरा नया नहीं है कोई भी मगर
इन्सान क्यों न जाने बदल गए ।